संस्मरण

मेरी कहानी 129

एक दफा मुझे कुछ जरूरी काम के लिए इंडिया आना पड़ा था और यह वर्ष 1982 था। मैंने अकेले ही आना था। सात हफ्ते की छुटी मैंने ले ली। हमारी मैनेजमेंट और यूनियन का ऐग्रीमैंट था कि पांच हफ्ते की पेढ हॉलिडे और चार हफ्ते की अनपेड हॉलिडे मिल जाती थी लेकिन मैंने सात हफ्ते की छुटी बुक करा ली और टिकट ले लिया। नया सूटकेस और कपडे बगैरा खरीद लिए। एक दिन कुलवंत कहने लगी कि मैं संदीप को भी साथ ले जाऊं। बात तो मुझे भी अच्छी लगी लेकिन संदीप का पासपोर्ट एक्सपायर हो चुका था और उधर ट्रेनों की स्ट्राइक थी, सोचा कि पासपोर्ट के लिए एप्लाई कर देते हैं, अगर वक्त पर पासपोर्ट आ गया तो संदीप को साथ ले जाऊँगा वर्ना नहीं । मैं उसी वक्त पोस्ट ऑफिस गया और पासपोर्ट के फ़ार्म ले आया, फिर उसी वक्त मैं संदीप को ले कर बैनर जी स्टूडिओ में गया और उस की फोटो खिचवा ली। दूसरे दिन फोटो मिल गईं, मैंने फ़ार्म भरे, अपने डाक्टर से फोटो सर्टिफाइ करवाए और फ़ार्म भरके पासपोर्ट ऑफिस पीटरबरह को भेज दिए। मेरे जाने में अभी तीन हफ्ते रहते थे। सोमवार को मैंने फ़ार्म भेजे थे, हम हैरान हो गए जब चौथे दिन बृस्पतिवार को पासपोर्ट हमारे घर आ गया। मुझे अपने वह दिन याद आ गए जब इंडिया में मैंने कितनी मुश्किल से पासपोर्ट बनवाया था। अब तो हमारे लिए आसान हो गया। मैं ट्रैवल एजेंट के ऑफिस में गया और संदीप की सीट भी साथ ही बुक करा ली। एक शाम हम ने बर्मिंघम से फ्लाइट ली और इंडिया की ओर रुख कर लिया।

जब हम दोनों अमृतसर राजासांसी एअरपोर्ट पर पहुंचे तो हमको लेने के लिए कुलवंत के पिता जी आये हुए थे। एअरपोर्ट के बाहर जब हम आये तो बाहर इर्द गिर्द गंद ही गंद था। यह भी लिख दूँ कि उस वक्त यह एअरपोर्ट एक बस अड्डे जैसा ही था और यह पहले मिलिटरी एअरपोर्ट ही होती थी। संदीप के नाना जी चाय पीने के लिए एक खोखे पर हमें ले गए जो लकड़ी का बना हुआ था। और एक आदमी कोयले की अंगीठी पर चाय बनाने लगा। मेरे लिए तो यह कोई नई बात नहीं थी लेकिन संदीप के लिए यह सब अजीब था किओंकी जब पहले संदीप इंडिया आया था तो उसकी उम्र एक साल की ही थी। चाय वाले ने ग्लासों में चाय डाल कर हमें पकड़ा दी। संदीप ने जब ग्लास पकड़ा तो उस के हाथ से ग्लास छूट कर गिर गया और टूट गया। कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, कह कर अब उस ने और चाय एक कप में डाल दी लेकिन चाय में शुगर इतनी थी कि संदीप ने वहीँ कप रख दिया और कहा कि उस ने चाय पीनी ही नहीं। यहां यह भी बता दूँ कि इंगलैंड में चाय में इतनी शूगर नहीं डालते बल्कि इस से आधी ही डालते हैं और कई तो बगैर शूगर के पीते हैं। खैर हम गाड़ी में बैठ गए और जीटी रोड पर चल पड़े और दो घंटे में राणी पुर आ गए। जब हम घर के गेट पर पहुंचे तो एक अजनवी ने गेट खोला और उस ने हंस कर हमारा स्वागत किया, यह शख्स मेरे छोटे भाई की पत्नी का भाई था और इस का नाम तरसेम है। घर के भीतर हम आ गए और छोटी भरजाई परमजीत ने चाय बना कर हमारे आगे टेबल पर रख दी और साथ ही रख थी एक बर्फी की पलेट। चाय पी कर कुलवंत के पिता जी गाड़ी वाले के साथ वापस धैनोवाली चले गए।

एक तो संदीप शुरू से ही कुछ शर्मीले सुभाव का था, दूसरे एक अजनवी देस और तीसरे अजनवी लोग। यूं तो सभी उस से पियार करते थे लेकिन एक पिता होने की हैसियत से मैं सब कुछ जानता था कि संदीप आकर खुश नहीं था, वह चुप चुप था। उसने चाय के साथ बर्फी जो खाई, आधे घंटे बाद उस के पेट में दर्द होने लगी, दर्द भी इतनी कि उस ने अपना पेट पकड़ लिया। मैं उस को देख कर घबरा गया। तरसेम जिस को पप्पू कह कर बुलाते थे उसको पूछा कि गाँव में कौन अच्छा डाक्टर है। उस ने बताया कि गाँव में दो डाक्टर हैं लेकिन डाक्टर बग्गा ही ज़्यादा मशहूर है। मैंने पपू को डाक्टर के पास भेजा तो वह आधे घंटे में ही आ गया। डाक्टर ने एक दो मिंट संदीप को चैक किया और गर्म पानी लाने के लिए बोला। पानी आ गया और डाक्टर बग्गे ने अपने बैग से इंजैक्शन वाली सिरिंज निकाली जिस को देखते ही मैं घबरा गिआ किओंकी सिरिंज इतनी पुरानी और घिसी हुई थी कि मुझे कुछ खौफ होने लगा। मैंने कहा डाक्टर साहब किया यह इंजैक्शन जरूरी है, आप के पास कोई और मैडीसन नहीं है ? डाक्टर ने कहा कि इस इंजैक्शन से बिलकुल ठीक हो जाएगा।

डाक्टर ने टीका लगा दिया लेकिन उस सिरिंज की मोटी सूई देख कर मेरे मन में कई विचार आ रहे थे। हवा पानी बदलने से पेट दर्द और जुलाब लग जाने कोई बड़ी बात नहीं है और मेरे डाक्टर ने मुझे कहा था कि मैं इम्पोडीअम के कैप्सूल साथ लेता जाऊं और मैंने ले भी लिए थे लेकिन मैं यह कैप्सूल घर ही भूल आया था। डाक्टर चले गया और संदीप को नींद आने लगी। मैंने उस को चारपाई पर लिटा दिया और वह उसी वक्त सो गया। देर रात को मैंने उस को जगाया और रोटी खिलाई। रोटी खाने के बाद वह फिर सो गया। सफर की थकावट से मुझे भी नींद आ रही थी लेकिन मुझे संदीप की चिंता थी और सारी रात उठ उठ कर उसे देखता रहा। सुबह को मैंने उस को जगाया तो उस ने टॉयलेट जाने की इच्छा जाहर की लेकिन उस समय तो टॉयलेट गाँव में किसी घर में भी नहीं थी। दूर जाने की स्थिति में संदीप नहीं था, इस लिए घर के साथ ही जो हमारा प्लाट था उस में एक कमरा बनाना शुरू किया हुआ था जिस की दीवारें अभी छै सात फुट ऊंची ही थी। संदीप को मैं वहां ले गया और उस को बताया कि ऐसे बैठना है लेकिन संदीप कभी ऐसे बैठा नहीं था और अब उस से बैठ नहीं होता था। बड़ी मुश्किल से मैंने उस को नितक्रिया से फार्ग कराया लेकिन अब उस की टांगों में दर्द होने लगा।

संदीप के लिए सुबह को खाने के लिए मैं काफी सीरियल साथ ले आया था। जब मैंने एक कौली में कुछ कॉर्न फ्लेक्स और दूध डाल कर उस को दिए तो उस को भैंस का दूध अच्छा नहीं लग रहा था। बड़ी मुश्किल से उसने कॉर्न फ्लेक्स खाये और फिर सो गया। इस तरह तीन दिन उस को नींद आती रही और अब वह घर के इर्द गिर्द घूमने लगा। छोटे भाई की संदीप की ही उम्र की एक बेटी सोनू थी जो संदीप को बहुत पियार करती थी। बड़े दुःख की बात है कि यह सोनू बिटीआ 1984 के बाद उन काले दिनों में जब पंजाब में आतंकवादीओं का जोर था, डायरिया के कारण भगवान् को पियारी हो गई थी क्योंकि डर के मारे कोई डाक्टर नहीं आया था। सोनू के साथ संदीप अब खेलने लगा था। ऐसे दिन बीतने लगे और एक दिन हम ने गाँव का चक्क्र लगाया और बहुत लोगों के घरों में गए।

एक दिन मैंने पप्पू को पुछा कि बहादर का भाई हरमिंदर कहाँ है और किया करता है तो पप्पू बोला, ” भा जी ! वह तो डेयरी फार्मिंग का काम करता है और उससे तो सभी डरते हैं, पिस्टल हर दम उस के पास होता है, पुलिस उसके घर आती जाती रहती है, उस से गाँव के बदमाश भी डरते हैं “. मैं ने पप्पू को उसी वक्त हरमिंदर को मिलने के लिए बोला और हम हरमिंदर यानि लड्डे को मिलने चल पड़े। जब हम हवेली नुमा घर में गाये भैंसों वाली डेयरी में पहुंचे तो लड्डा चारे की मशीन के नजदीक खड़ा था। मलमल का कुर्ता पजामा उसने पहना हुआ था और उस की पीठ हमारी तरफ थी। मैंने जोर से बोला,”ओए ?” लड्डा पीछे मुड़ कर मेरी ओर देखते ही मुस्करा पड़ा और बोला,” ओए परशाद तू किथों आ गया ? . जब लड्डा यहां होता था तो हम एक दूसरे को हंसी से परशाद जी कह कर बलाते थे। लड्डा अब बहुत मोटा हो गया था और उस के बड़े हुए पेट को हाथ लगा कर मैं बोल उठा, ” ओए तू एह की बणा लिया “. लड्डा हँसता रहा और हम तीनों ऊपर को चल पड़े। डेयरी वाला हिस्सा नीचे था और घर कुछ ऊंचाई पर था। इस घर की जगह गाँव से सभ से ऊंची है जिस के बारे में मैं अपनी कहानी के शुरू में लिख चुक्का हूँ कि दांत कथा के हिसाब से यहां कभी रानीओं का महल हुआ करता था जो ढय ढेरी हो गया था और इसी कारण गाँव का नाम पहले राणी थुआ यानि खंडरात और बाद में राणी पुर के नाम से जाना जाने लगा था ।

ऊपर पहुँच कर देखा लड्डे की माँ चूल्हे के पास बैठी थी। लड्डे की पत्नी गुरमीत और बच्चे भी वहां थे। मैंने सब को सत सिरी अकाल बोला और हम हाल कमरे में चले गए। कमरा बहुत सजा हुआ था। मैंने कमरे के चारों ओर लगी फोटो को देखा जिनमें घर के सदस्यों और उन के बज़ुर्गों की फोटो भी देखीं जिन में कुछ अँगरेज़ लोग भी थे। बहादर और लड्डे के बज़ुर्गों का कभी गाँव पे बहुत दब दबा होता था और एक सुन्दर कोठी भी होती थी जिन के बारे में मैं कहानी के शुरू में कुछ किश्तों में लिख चुक्का हूँ। लड्डा मुझ से मिल कर बहुत खुश था। हम चाय पीने लगे और इंगलैंड के उन दिनों को याद करके हँसते रहे जब हम खूब घुमते रहते थे और फिर लड्डा वह बात याद करके हंस रहा था, जब वह आधी रात को हमारे घर से जा रहे थे तो उन की कार की चाबी गटर में गिर गई थी और कितनी मुसीबत हमें झेलनी पडी थी। कुछ देर बातें करने के बाद हम वापस आ गए। घर आ कर पप्पू मैं और संदीप अपने खेतों की ओर चल पड़े। रास्ते में बहुत लोग मिले और उन को मिल कर मन खुश होता लेकिन अब कई नए चेहरे भी दिखने लगे थे जिन को मैं जानता नहीं था क्योंकि जिन बच्चों को बचपन में देखा था अब जवान हो गए थे। कई बार तो ऐसा होता कि कोई मुझे आ कर कह देता,”भा जी सत सिरी अकाल “, मैं पूछता तू कौन है बई ? तो वह बताता कि वह उन का बेटा है तो मैं फट समझ जाता। खेतों में घुमते घुमते घर आ गए। मेरे बहुत से काम थे और उन में एक काम था बहुत से बैंकों में पड़े पैसे जो कोई ज़्यादा तो नहीं थे लेकिन एक तो उन पे किसी ने बहुत सालों से विआज दर्ज नहीं कराया था दूसरे इन सब खातों को मैंने बंद करवा कर सिर्फ एक अकाउंट ही कर लेना था।

एक दिन अचानक गाँव की बैंक पंजाब ऐंड सिंध बैंक का मैनेजर हमारे घर ही आ गया और मुझे सत सिरी अकाल बोल कर चूल्हे के नज़दीक ही मेरे पास बैठ गया और बातें करने लगा। मैनेजर मेरी उम्र का ही था और मुझे वह बहुत दिलचस्प लगा। यह तो मुझे पता था कि बैंकों के मैनेजर चाहते हैं कि लोग उन की बैंक में पैसे जमा कराएं और इसी लिए वह लोगों से ख़ास कर बाहर से आये लोगों के साथ ज़्यादा लगाव रखते हैं। हम दोस्त बन गए और हर सुबह शौच के लिए बाहर खेतों में इकठे दूर दूर चले जाते। एक दिन उस ने मुझे पूछा कि अगर कोई काम हो तो मैं उसे बताऊँ। मैंने कहा, ” सन्धु साहब मेरे और मेरी पत्नी के बहुत से छोटे छोटे अकाउंट बिखरे पढ़े हैं और मैं उन को एक जगह ही गाँव में आप की बैंक में ले आना चाहता हूँ ताकि जब भी हम आएं, पैसे के लिए हम को फगवाड़े जाना ना पड़े , मुसीबत यह है कि मेरी पत्नी किसी कारणवश यहां आ नहीं सकती लेकिन मैं बहुत से कोरे कागज़ों पर अपनी पत्नी के दस्तखत करा के ले आया हूँ, क्या कुछ हो सकता है ?” मैनेजर सन्धु बोला, ” गुरमेल सिंह ! कोरे कागज़ों पर साइन करा के तो आपने सब काम आसान कर दिया, लो आज ही फगवाड़े चलते हैं, तुम घर जा कर तैयार हो जाना और मैं मोटर साइकल ले कर आप के घर आ जाऊँगा।

कुछ समय बाद सन्धु आ गया और हम फगवाड़े को चल पड़े। सभी बैंकों वाले सन्धु को तो जानते ही थे, इस लिए जिस किसी बैंक में हम जाते, वहीँ बैठ कर एप्लिकेशन लिख लेते कि कृपा मेरे अकाउंट के सारे पैसे मेरे पति के अकाउंट में ट्रांसफर कर दें, नीचे कुलवंत के दस्तखत तो पहले ही होते थे, जब पैसे मेरे अकाउंट में हो जाते तो हम विद्ड्रावल फ़ार्म भर देते और कुछ पैसे छोड़ कर सारे पैसे निकलवा लेते। ऐसे ही हम ने सभी बैंकों के खाते बंद कर दिए। पैसे लेकर पहले हम पूनम होटल पर खाने के लिए चले गए और खा कर सीधे राणी पुर को चल पड़े और पंजाब ऐंड सिंध बैंक में आ गए और कुछ पैसे ओपन अकाउंट में रख कर बाकी पैसे सात साल के लिए फिक्स कर दिए। सात साल में यह पैसे तकरीबन डब्ब्ल हो जाते थे। एक ही दिन में बहुत सा काम हो गया था और बस एक अकाउंट जालंधर पंजाब नैशनल बैंक में था। दूसरे दिन मैं लड्डे को ले कर जालंधर चले गया।

बैंक बुक बहुत पुरानी और फटी हुई थी और कभी विआज भी किसी ने लगवाया नहीं था हालांकि यह सब बैंक बुक्स मैं राणी पुर छोड़ गया था। थोड़ी सी आना कानी क्लर्कों ने की लेकिन हम सीधे मैनेजर के ऑफिस में चले गए और उस को सारी बात बताई कि मैं देर बाद इंडिया आया था, इसी लिए यह बुक ऐसे ही पडी रही और किसी ने इसे देखा ही नहीं। मैनेजर एक भला सजन था, उसी वक्त उस ने किसी को बुलाया और बुक उस को पकड़ा दी और हमारे लिए चाय मंगवा ली और काफी देर हम बातें करते रहे। कुछ देर बाद हमें एक पीतल का गोल सिक्का सा जिस के ऊपर कोई नंबर था, मुझे दे दिया और बताया कि मैं कैशियर से पैसे ले लूँ। बैंक बुक पर पिछले सारे सालों का विआज लगा दिया गया था और कुछ पैसे बुक में छोड़ कर शेष पैसे ले कर हम बैंक से बाहर आ गए और एक होटल में जा कर खाना खाया और वापस राणी पुर आ गए। बैंकों का सारा काम हो गया था और अब मैंने संदीप को भी कुछ घुमाना था।

छोटे भाई निर्मल सिंह की बेटी सोनू के साथ संदीप बहुत खुश था। गली के और बच्चे भी हमारे घर आ जाते और रल मिल कर खेलते रहते लेकिन सोनू संदीप का बहुत खियाल रखती। राणी पुर से फगवाड़े को टैम्पू और टाँगे आम चलते थे। एक दिन मैं संदीप को ले कर अमृतसर जाने के लिए टाँगे में बैठ कर फगवाड़े आ गया और वहां से सीधी अमृतसर को जाने वाली बस पकड़ ली। दो ढाई घंटे बाद हम अमृतसर पहुँच गए। बस से उतर कर हमने एक रिक्शा लिया और हरमंदिर साहिब की ओर चल पड़े। अब तो मुझे पता नहीं लेकिन उस वक्त हरमंदिर साहब को जाने के लिए सड़कें बहुत भीड़ी थीं और ट्रैफिक बहुत थी। हम हरमंदिर साहब के नज़दीक ही थे कि एक मोटर साइकल वाले ने रिक्शे में टक्क्र मार दी और संदीप की पैंट फट गई और जांघ पर थोड़ी सी खरोंच भी आई। रिक्शे वाला उस से लड़ने लगा लेकिन मैंने उस को कहा कि जाने दो हम ठीक ठाक हैं और रिक्शे का भी कोई नुक्सान नहीं हुआ।

जल्दी ही हम हरी मंदिर साहब के आगे थे। हम ने जूते उतार कर जमा कराये और दर्शनी ड्योढ़ी पर पैर धो कर आगे चल पड़े। संदीप देख कर बहुत खुश हुआ और मैंने पहले प्रसाद के लिए खिड़की पर पैसे दे कर रसीद ली और एक जगह से प्रसाद ले कर हरी मंदिर साहब की ओर चल पड़े। भीतर पहुँच कर हम ने प्रसाद भेंट किया और फिर गियानी जी ने हमें भी दिया। हम दोनों ने माथा टेक कर परकर्मा की और वापस आ गए। अब हम ने बहुत सी फोटो खींची। इस में ख़ास बात यह है कि सरोवर के बिलकुल नज़दीक संदीप को बिठा कर मैंने एक फोटो खींची थी। कुछ साल हुए कुलवंत संदीप, हमारी बहु और बच्चों को ले कर इंडिया आई थी और संदीप ने हमारे बड़े पोते की फोटो ठीक उसी जगह खींची यहां कभी मैंने संदीप को बिठा कर खींची थी। हमारे बड़े पोते की शकल एक दम संदीप से मिलती है और पता ही नहीं चलता कि संदीप बैठा है या उस का बेटा। भूख लग गई थी, लंगर से खाना खा कर हम बाहर आ गए। सभी के लिए हम ने कुछ गिफ्ट खरीदे, कुछ किताबें खरीदी और वापस घर की ओर चल पड़े।

चलता. . . . . . . .

9 thoughts on “मेरी कहानी 129

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। १९८२ की घटनाओं का सजीव चित्रण आपकी लेखन एवं चिंतन प्रतिभा का प्रमाण है। कथा पढ़कर प्रसन्नता एवं आनंद आया। हार्दिक धन्यवाद। सादर।

    • मनमोहन भाई , बहुत बहुत धन्यवाद . आप की पर्संता में ही मेरी पर्संता है .

    • धन्यवाद रमेश भाई .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, सच में इतनी अच्छी व रोचक आत्मकथा हमने कभी नहीं पढ़ी. जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है, चित्र बदलते जाते हैं. बहुत मज़ा आ रहा है. एक और शानदार एपीसोड के लिए आभार.

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, सच में इतनी अच्छी व रोचक आत्मकथा हमने कभी नहीं पढ़ी. जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है, चित्र बदलते जाते हैं. बहुत मज़ा आ रहा है. एक और शानदार एपीसोड के लिए आभार.

    • लीला बहन , आप पड़े रहे हैं और मुझे उत्साह मिल रहा है , कोशिश जारी रहेगी ,देखिये आगे कौन सी याददाश्त दिमाग में आती है .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    छोटी से छोटी बात को याद रख बारीकी से उम्दा लेखन करना … बड़ी उपलब्धी है
    सादर

    • विभा बहन , उत्साह के लिए धन्यवाद , आप पढ़ रहे हैं ,मेरे लिए यही बड़ी उप्लभ्दी है .

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