गीत : मथुरा की पीड़ा
(मथुरा में हुयी आगजनी, हिंसा और मौतों पर मथुरा की पीड़ा को दर्शाती मेरी नई कविता)
मैं मथुरा नगरी हूँ, घायल हूँ सत्ता की चोटों से
कैसे कहूँ वेदना अपनी इन झुलसाये होठों से
मैं तो प्रेम रंग में डूबी मदमस्तों की नगरी थी
होली के रंगों में छायी प्रेम सुधा की बदरी थी
वंशीवट पर बजी बांसुरी, मैं खुल कर इठलाई थी
मैं कान्हा के बाल रूप पर मंद मंद मुस्काई थी
मैं मीरा का प्रेम ग्रन्थ थी, सूरदास की स्याही थी
वासुदेव की लीलाओं की पावन एक गवाही थी
मैं यमुना के निर्मल तट पर ग्वालों के संग झूमी थी
गोवर्धन से वृन्दावन तक कृष्णप्रेम में घूमी थी
लेकिन आज बहुत घायल हूँ, हृदय कष्ट में रोया है
कांधों पर अपने मैंने चौबीस लाशों को ढोया है
लुटी पिटी हूँ, पूछ रही हूँ लखनऊ के सरपंचों से
मेरा सीना क्यों घायल है कट्टों और तमंचों से
मोहन की मुरली को आखिर किसने चकनाचूर किया
किसने दो सालों तक गुंडों को सहना मंजूर किया
लगता है अपने ही कुत्ते पाल रहे थे नेता जी
रामवृक्ष की जड़ में पानी डाल रहे थे नेता जी
क्या कारण था, मथुरा की रखवाली नहीं करा पाये
दो सालों से बाग़ जवाहर खाली नहीं करा पाये
जिस में सारी खीर पकी है, बोलो बर्तन किसका था
दो सालों तक इसके पीछे मौन समर्थन किसका था
20 लाख में दो वर्दी वालों का मरण भुलाया है
गौ भक्षी अख़लाक मरा तो, पूरा कोष लुटाया है
ना तो ख़ान, हुसैन,अली, ना वोट बैंक के बिंदू थे
जो कुर्बान हुए वर्दी वाले दोनों ही हिन्दू थे
मुस्लिम होते तो सत्ता की अंतड़ियां तक फट जातीं
चार फ़्लैट, रुपये करोड़, नौकरियां तक भी बंट जातीं
अब गौरव चौहान कहे, वर्दी की यही कहानी है
खुद नेता का हुक्म बजाएं, खुद देनी कुर्बानी है
कब तक खेल चलेगा भईया, अब जवाब देना होगा
आने वाले हैं चुनाव सबका हिसाब देना होगा
— कवि गौरव चौहान