ग़ज़ल : आज बारिश डराने आ गयी
आज फिर बारिश डराने आ गयी।
पर्वतों पर कहर ढाने आ गयी।
मेघ छाये-गगन काला हो गया,
चैन आँखों का चुराने आ गयी।
लीलने को अब नहीं कुछ भी बचा
राग फिर किसको सुनाने आ गयी?
गाँव की वीरान कुटिया पूछती
क्यों यहाँ आफत मचाने आ गयी?
जिन्दगी के आशियाने ढह गये,
पत्थरों को अब सताने आ गयी।
अब नहीं भाता तुम्हारा “रूप” हमको,
क्यों यहाँ सूरत दिखाने आ गयी?
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’