संस्मरण

मेरी कहानी 145

जैसा कि हम ने प्रोग्राम बनाया हुआ था, आनंद पुर साहब को जाने की हम ने तयारी कर ली। नियत दिन हम टैम्पू में बैठ कर फगवाड़े बस अड्डे पर पहुंच गए क्योंकि यहां हम ने एक दूसरे का इंतज़ार करना था। कुंदी और पुन्नी को यहां पहुंचने में किसी कारणवश बहुत देर हो गई और मैं वक्त पास करने की गर्ज़ से वहां एक पेपर स्टाल की ओर चले गया, जिस के बारे में मैं, मेरी कहानी के कांड 136 में लिख चुक्का हूं। बहुत से पेपर मैंने उलट पुलट कर देखे और अचानक मेरी नज़र एक पंजाबी के मैगज़ीन पर पड़ी, जिस पर लिखा था “तर्कशील”, इस मैगज़ीन को पड़ते पड़ते में इस में गुम ही हो गया क्योंकि यह तो मेरे ही विचार थे जो इस मैगज़ीन में लिखें हुए थे। इस में भूतों चुड़ैलों के बारे में, किसी के शरीर में भूत ने अपना आसन जमा लिया, किसी के घर कोई लड़की खेलने लगी और पागल हो गई, किसी के घर आ कर कोई बाबा वहम डाल कर पैसे ले गया, किसी के घर अचानक आग लगने लगी, किसी के घर की लड़की पिछले जन्म की बातें करने लगी, ऐसी बहुत सी बातें लिखी थीं और इस तर्कशील के मैम्बर, लोगों के घर जाकर उन के वहम दूर कर देते थे ।

                 कुंदी और पुन्नी आ गए और उन्होंने लेट होने का कारण घर में अचानक महमान आ जाना बताया। हम आनंदपुर साहब की बस का पता किया लेकिन सीधे आनंद पुर साहब को बस नहीं जाती थी, सिर्फ गढ़शंकर तक ही जाती थी और वहां से ही आनंद पुर साहब को बस जाती थी। गढ़शंकर की बस में हम बैठ गए। कुन्दी और मैं बातों में ऐसे खोए कि पता ही नहीं चला कब गढ़शंकर पहुंच  गए। गढ़शंकर बस अड्डे पर बहुत गंदगी थी और लोग खुले में एक दीवार के साथ पिछाब कर रहे थे और बदबू आ रही थी। जल्दी ही हमे आनंद पुर साहब के लिए बस मिल गई और इस में बैठ कर सफर शुरू हो गया। आगे का सफर बहुत आनंदमई था । बस कंडक्टर ने हमे कोई टिकट नहीं दिया था और हम हैरान थे कि क्यों, पैसे हमारे हाथों में थे। जब आनंद पुर साहब दो तीन मील दूर रह गया तो आधी बस रास्ते में खाली हो गई थी। बस कंडक्टर हमारे पास ही आ कर बैठ गया और बोला,” सरदार जी ! पैसे निकालो “, हम ने पैसे उस को दे दिए, जब बहुत देर तक उस ने हमे टिकट नहीं दिया तो मैंने कंडक्टर को टिकट देने को कहा, तो वह हीं हीं करके मुस्कराने लगा और उस ने हमे पांच पांच रुपए वापस कर दिए। हम समझ गए कि वे ऊपर से कमाई कर रहा था। फिर मैं उस से बातें करने लगा और उस को बताया कि मैं भी इंग्लैंड की बसों में कंडक्टर रह चुका हूं, तो वह मेरे पर सवाल से सवाल करने लगा। फिर मैंने उस को बताया कि इंग्लैंड में ऐसा करने की  सज़ा उसी वक्त काम से छुटी है लेकिन अच्छा काम करने वालों को रिवार्ड भी मिलता है। मैंने बहुत बातें उस से कीं और वह कुछ कुछ शर्मिंदा था जो उस के चेहरे से साफ दिखाई दे रहा था।
आनंद पुर शहर शुरू हो गया था। सड़क बहुत अच्छी और चौड़ी थी और दोनों तरफ दुकानें ही दुकाने थीं। गुर्दुआरा दूर से दिखाई देने लगा था। बस से उतर कर हम गुर्दुआरे की ओर चल पड़े। आगे हम को काफी चढ़ाई चढ़नी पड़ी। जब हम ऊपर पहुंचे तो गुर्दुआरा देख कर ही रूह खुश हो गई। सब जगह संगमरमर ही दिखाई दे रहा था। इधर उधर हम घूमने लगे। एक तरफ एक पुरातन नगाड़ा पड़ा था, क्योंकि यहां कभी बहुत लड़ाइयां हुई थी और उस वक्त इस नगाड़े की आवाज़ दूर दूर तक सुनाई देती होगी। माथा टेकने के लिए हम गुर्दुआरे के भीतर चले गए, कीर्तन हो रहा था, हम ने माथा टेका और कुछ देर के लिए बैठ कर कीर्तन का आनंद लिया और फिर प्रसाद ले कर बाहर आ गए। भूख लगी हुई थी, इस लिए हम लंगर हाल में चले गए और लंगर के सादे लेकिन पौष्टिक भोजन का आनंद लिया और बाहर आ गए। क्योंकि हम ने आनंद पुर साहब दो दिन रहने का प्रोग्राम बनाया हुआ था, इस लिए रिहायश के लिए हम सराए की ओर चल पड़े। सराए की बिल्डिंग बहुत बड़ी थी, जिस में अनगिनत कमरे थे। यह एक चकोर बिल्डिंग थी, चारों तरफ मल्टी स्टोरी फ्लैट थे और इस बिल्डिंग के सेंटर में काफी बड़ा आँगन था, जिस में एक लान था जिस के चारों ओर तरह तरह के फूल खिले हुए थे।
कमरा लेने के लिए हम ऑफिस में गए तो एक सरदार जी ने हम से दो रातों के सौ रूपए लिए जो हम कमरा खाली करने के बाद वापस ले सकते थे लेकिन हम ने कह दिया कि बिल्डिंग फंड के लिए ही रख ले, हम ने वापस नहीं लेने थे, इस से सरदार जी ने हमें एक और टिकट दे दी। कमरे की चाबीआं ले कर हम कमरे की और चल पड़े जो दुसरी मंजिल पर था। कमरे का ताला खोला तो कमरा काफी साफ़ सुथरा था और इस में दो डब्बल बैड थीं, शावर और शौचालय भी साफ़ सुथरे थे। सामान रख के कुछ देर के लिए हम बातें करने लगे। कुछ आराम भी हो गिया और फिर हम ने भाखड़ा डैम देखने का प्रोग्राम बना लिया और बाहर आ कर बस का पता किया। नीचे बस अड्डे से एक बस कंडकटर ने एक बस की ओर इशारा किया जो भाखड़ा नंगल को जाती थी। बैठने के बाद जल्दी ही चल पड़ी। यह सफर भी एक यादगार ही है क्योंकि जो पहाडिओं में सड़क थी वह सांप की तरह बल खाती जाती थी और एक तरफ गहरी खाइयां देख कर डर भी लगता था कि अगर कोई बस इस सड़क पर से फिसल जाए तो कुछ भी बचेगा नहीं। रास्ते में छोटे छोटे गांव आ रहे थे जो पहाड़ी के ऊपर बने हुए थे और यह सीढ़ियों की तरह बने हुए थे, नीचे, ऊपर और उस के ऊपर मकान बने हुए थे। यह देख कर मुझे बहुत हैरानी हो रही थी और मज़े की बात यह भी थी कि पहाड़ी के नीचे से ऊपर तक बिजली के खंभे लगे हुए थे जिस का मतलब यह था, यहां सारी सुभिधाएं  थीं। मैंने अपना कैमकॉर्डर निकाल लिया क्योंकि नज़ारा ही ऐसा था कि रहा नहीं गया।
अब नंगल पहुंच गए। यह बहुत चौड़ी नहर थी जो बिल्कुल पक्की थी। नहर के किनारे बहुत साफ और काफी चौड़ा फुटपाथ था जो सैर के लिए बनाया हुआ था, नहर के किनारे बिजली के खंभे भी थे जिन पर बड़े बड़े लैम्प शेडों से बल्व दिखाई दे रहे थे। इस जगह मैं एक दफा 1962 में इंग्लैंड आने से पहले बड़े भाई संतोख को मिलने आया था जो मेरे मामा जी के बेटे हैं। उस वक्त संतोख सिंह भाखड़ा डैम पर इंजनियर लगे हुए थे। दरअसल उस वक्त इस टाऊन को नंगल टाऊनशिप कहते थे जिस में भाखड़ा डैम पर काम करने वालों के लिए कुआटर बनाए गए थे, जिन में  ज़िआदा इन्ज्नीअर और अन्य ऑफिसर अपने परिवारों के साथ रहा करते थे, यहाँ बच्चों के लिए सकूल बने हुए थे और ऑफिसरों की कलब्ब भी थी जिस में एक दफा मुझे भी उन के साथ वॉलीबाल खेलने का अवसर मिला था। नहर का पुल पार करने के बाद पहाड़ी सफर फिर शुरू हो गया। सीन खतरनाक भी था और खूबसूरत भी। सड़क के एक ओर ऊंची चटाने थी, इतनी ऊंची कि देख कर भय सा लगता था। जल्दी ही भाखड़ा डैम दिखाई देने लगा और इन के तीन गेटों से पानी निकल रहा था जो आगे दरिया सतलुज में तब्दील हो रहा था। मूवी या फोटोग्रफी की मनाही थी लेकिन मैंने चुपके से कुछ सीन रिकार्ड कर लिया क्योंकि यह बहुत सुंदर नज़ारा था।
सांप की तरह वल खाती हुई सड़क पर एक जगह बस आ कर खड़ी हो गई और हम डैम के नज़दीक पहुंच गए थे। आगे गोबिंद सागर झील का लहलहाता नीला पानी दिखाई दे रहा था। कुछ देर तक हम समुंदर जैसे इस झील के पानी को देखते रहे। एक रेहड़ी वाला और एक छाबड़ी वाला वहां थे और कुंदी ने छाबड़ी वाले को चने की पीली पीली दाल देने के लिए कह दिया। छाबड़ी वाले ने अखबार के कागज़ में दाल  डाल कर उस पर मसाला डाला और फिर उस पर निम्बू निचोड़ कर रस डाला और इसे मिक्स करके हमे पकड़ा दिया। चने की दाल खा कर दूसरी रेहड़ी से सोडा वाटर की बोतलें पीं और डैम की तरफ चल दिए लेकिन जिस डैम को हम देखने आए थे वह सपना हमारा पूरा ना हो सका क्योंकि आगे जाने नहीं देते थे, याद नहीं क्यों। उदास हुए इधर उधर हम घूमते रहे लेकिन ऐसे कितनी देर बेवजह घूम सकते थे। वापस जाने के लिए हम सड़क की दूसरी तरह बस के लिए इंतज़ार करने लगे। 1962 में भैया संतोख ने मुझे डैम का भीतर दिखा दिया था लेकिन उस वक्त तो अभी कम्प्लीट नहीं हुआ था और कुछ काम अभी रहता था । सुना था 1963 में कुछ जैनरेटर चलने शुरू हो गए थे और बिजली आणि शुरू हो गई थी। श्री जवाहर लाल  नेहरू जी ने इस का नींव पत्थर रखा था लेकिन 1964 में ही पंडित जवाहर लाल स्वर्गवास हो गए थे।
बस पकड़ कर हम आनंद पुर साहब वापस आ गए। अपने कमरे में आ कर सब ने स्नान किया और कपड़े बदल कर गुर्दुआरे की ओर चल पड़े। पहले लंगर में जा कर परसादा छका और फिर कीर्तन सुनने के लिए गुर्दुआरे में चले। कीर्तन के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी के शस्त्र दिखाए जाते थे, और यह देखने के लिए मुझे बहुत उत्सुकता थी। तकरीबन 9 वजे एक के बाद एक शस्त्र दिखाने लगे जो देख कर हम हैरान हो गए कि कुछ शस्त्र इतने भारी स्टील के थे कि यह शस्त्र उठा कर कैसे मैदाने जंग में लड़ते होंगे। शस्त्र दिखाते वह इस के बारे में कुछ इतहास की बातें भी बता रहे थे। एक शस्त्र जिस को नागणी कहते थे, वह एक सांप की शकल की बनी हुई थी और इस के इतहास के बारे में बताया कि एक सिंह ने इस नागणी से एक शराबी और मस्त हाथी के सर में छेद कर दिया था और दुश्मन की फौज मैदान छोड़ कर भाग गई थी। ज़्यादा मुझे याद नहीं लेकिन जितने शस्त्र देखे वह अभी तक मेरी आंखों के सामने हैं। दस बजे के करीब हम वापस आ कर कमरे में बातें करते करते सो गए। दूसरे दिन तैयार हो कर हम ने खाना किसी ढाबे पर खाने का मन बना लिया। एक सरदार जी के ढाबे पर तरह तरह के पराठों की लिस्ट देख कर  हम ने आर्डर दे दिया और दही के साथ मज़े से खाये।
ढाबे से निकल कर हम कुछ इतिहासिक गुर्दुआरे देखने चल पड़े। काफी गुर्दुआरे देखे और एक गुर्दुआरा जिस जगह पर एक सिंह दिली से गुरु तेग बहादर जी का शीश ले कर आया था, वह जगह देखी जिस पर खड़े हो कर बालक गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों को ज़ुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हो जाने को कहा था। यहां से हम ने नैना देवी जाने का मशवरा कर लिया। नैना देवी का मंदिर एक पहाड़ी पर बना हुआ है। ट्रांसपोर्ट के लिए हम सड़क पर खड़े हो गए लेकिन  ट्रांसपोर्ट मिल नहीं रही थी। काफी देर हम इतंज़ार करते रहे। दूर से आ रही एक सूमों गाड़ी हमारे पास आ कर खड़ी हो गई। इस में एक मिआं बीवी ही थे और हमे बैठने के लिए बोला। भला हो इस शख्स का, इस ने हमारी बहुत मदद की। काफी दूर ऊंचाई पर यह शख्स हमे एक होटल तक छोड़ गया। पराठे खाये कई घंटे हो गए थे और अब हम ने इस होटल में खाना खाने का मन बना लिया। ताज़े ताज़े घर जैसे फुल्के और दाल और कुछ सब्जिओं के साथ खाने का मज़ा लिया। होटल से बाहर आ कर अब हम मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पर चलने लगे। जैसे जैसे हम ऊपर जा रहे थे, चढ़ाई चढ़नी मुश्किल हो रही थी ,कभी बैठ जाते, कभी आराम करके फिर ऊपर चढ़ने लगते। रब रब करके ऊपर पहुंच गए। ऊपर काफी दुकानें बनी हुई थीं और एक तरफ यात्रिओं के लिए लंगरखाना बना हुआ था जो इतना बड़ा नहीं था। आखर हम मंदिर के नज़दीक आ गए।
देवी के दर्शन करने के लिए यात्रिओं की लाइनें लगी हुई थीं। हम भी लाइन में खड़े हो गए। मंदिर के ऊपर बंदर इधर उधर छलांगें लगा रहे थे। एक पंडित जी जो साथ ही खड़े थे, मैंने उन से इस मंदिर का इतहास जानना चाहा, जो उस ने बताया लेकिन मुझे अब इतना ही याद है कि कोई देवी थी जिसको विष्णु भगवान ने सज़ा देने के लिए उस देवी के 51 टुकड़े कर दिए थे और उस की आंखें यानी नैन यहां इस पहाड़ी पर गिर गए थे और लोगों ने उस देवी की याद में यह नैना देवी का मंदिर बना दिया। इस इतहास के बारे में यकीनन मैं कुछ नहीं कह सकता क्योंकि यह सुनी सुनाई बात है  लेकिन इस मंदिर का इतहास श्री गुरु गोबिंद सिंह जी से भी जुड़ा हुआ है। यहां एक यज्ञ हुआ था और इस यज्ञ में गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस यज्ञ की सभी चीज़ें आग में फैंक कर तलवार निकाल ली थी और बोला था,” यही देवी है और यही जालम मुगलों का नाश कर सकती है “, और इस के बाद ही गुरु गोबिंन्द सिंह जी ने आनंद पुर साहब की धरती पर वैसाखी वाले दिन पांच पियारे स्थापित करके खालसा पंथ की नींव रखी थी और सिखों को सिंह बना दिया था। गुरु जी के इस कारनामे से महांराजा रंजीत सिंह ने खालसा राज कायम कर दिया था।
जब माथा टेकने हम मंदिर तक पहुंचे तो भीतर जाने के लिए दरवाज़ा बहुत छोटा सा था। भीतर छोटी सी मूर्ति थी जिस के गले में फूलों के हार थे। और कुछ याद नहीं, बस इतना याद है कि अब हम पैदल ही पहाड़ी से नीचे आए, जो काफी मुश्किल सफर था। आठ दस साल पहले सुना था कि इस पहाड़ी पर से बहुत से शर्धालू भीड़ और हफरा दफरी की वजह से पहाड़ी से नीचे गिर कर भगवान को पियारे हो गए थे। नीचे तक पहुंचते पहुंचते हम बहुत थक गए थे। जाते ही गुर्दुआरे में लंगर छक के अपने कमरे में सो गए और दूसरी सुबह बस पकड़ कर हम फगवाड़े की ओर चल पड़े।
चलता. . . .

4 thoughts on “मेरी कहानी 145

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। हमें कभी आनंदपुर साहब, भाखड़ा नंगल और नैना देवी जाने का अवसर नहीं मिला था। आज आपके साथ यह यात्रा हो गई और इसका काफी अच्छा आनंद भी मिला। आज की इस रोचक एवं रोमांचक कथा के लिए हार्दिक धन्यवाद। सादर।

  • धन्यवाद लीला बहन , मुझे सरुर कहानी सुनाने में आ रहा है . कोई सुनने वाला ना हो तो कहानी कहने में वोह आनंद नहीं आता .

  • धन्यवाद लीला बहन , मुझे सरुर कहानी सुनाने में आ रहा है . कोई सुनने वाला ना हो तो कहानी कहने में वोह आनंद नहीं आता .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, हमें तो कल की बात भी याद नहीं रहती और आप इतने साल पुरानी बात की एक-एक डिटेल बहुत विस्तार से बता रहे हैं. एपीसोड पढ़ने के नशे का सुरूर बढ़ता जा रहा है. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

Comments are closed.