भाषा-साहित्य

पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी

जहाने-अदब में अदम गोँडवी किसी तारुफ के मोहताज नहीं हैं।बीसवीँ सदी के मशहूर शायरोँ में अदम गोँडवी एक हैं।अदम साहब की पैदाइश उत्तर प्रदेश के गोँडा जिले के आटा गाँव परसपुर में 22 अक्टूबर 1947 को हुई थी और इंतकाल 18 दिसम्बर 2011 को हुआ। इनका असल नाम रामनाथ सिंह था उन्होंने अदम गोँडवी नाम से शायरी की।

अदब में पहले ग़ज़ले-नुक़्तए-मर्क़ज़ में था हुश्ने-महबूबा। ग़ज़ल का अल्फाजी माने ही है महबूबा से गुफ़्तगू।तारीखे-ग़ज़ल में शुरुआती ग़ज़ले ऐसा ही होती थीं जिनमें सिर्फ हुश्नो-इश्क लफ़्जोँ के सांचे में ढलकर ग़ज़ल की सूरत अख्तियार करता था। आहिस्ता-आहिस्ता ग़ज़ल ने करवट ली और इसके दायरे में हुश्नो-इश्क के अलावा जिंदगी के दीगर मसले भी शामिल हो गए।ग़ज़ल ने हुश्नो-इश्क की मख़मली दरीचोँ से उतरकर जिंदगी के खुश्को-खुरदरी जमीन पर अँगड़ाई ली। मकसदे-शायरी अल्फाज़े-शाहिद जमाल मुलाहज़ा फरमाएँ-
शायरी दिल में उतरती है वही,
जिसमें होती है ज़रा भी जिंदगी।

जिंदगी के तमाम पहलुओं को अपनी शायरी का मौजूँ बनाने वाले शायर थे अदम गोँडवी।उन्होंने अपनी शायरी के मर्कज़में आम आदमी की जिंदगी को रखा जो समाज के हासिए पर काबिज है।उसके खातिर आजादी के मायने सिफर है-
आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

उन्होंने जिंदगी को बड़ी ही पैनी नज़र से देखा और शायरी के जरिए सभी के सामने रखा।शेर मुलाहजा फरमाएँ-
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी।
हम गरीबों की नज़र में इक कहर है जिंदगी॥

अदम गोँडवी ने समाज को अपने तरीके से देखा औरबिना लाग-लपेट के हू-ब-हू ग़ज़लों में पेश किया।अदम साहब की शायरी में व्यंग्य ज्यादा तदाद में देखने को मिलता है। रामराज और समाजवादी संकल्पना पर व्यंग्य मुलाहजा है-
काजू भुने पलेट में ह्विस्की गिलास में।
उतरा है रामराज विधायक निवास में॥
पक्के समाजवादी है तस्कर हो या डकैत,
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।

आवाम को नींद से जगाने का पैग़ाम है गोँडवी साहब की शायरी में। वे कहते हैं कि आवाम को अपने हक जानने जरूरी हैं और अगर हक नहीं मिल रहे हों तो बगावत का रास्ता अख्तियार करने में गुरेज नहीं करना चाहिए क्योंकि आखिरी रास्ता वही है-
जनता के पास एक ही चारा है बगावत,
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।

उन्होंने अपनी शायरी के मकसद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि मैंने वही कहने की कोशिश की जो मंजर मेरी आँखों के सामने से गुजरा।उन्होंने ख्याली किले तैयार करने के बजाए जमीनी हकीकत को शेरो-शायरी का मौज़ूँ बनाया। उनकी नज़र महलों की तरफ उतनी नहीं गई जितनी मुफलिस की झोपड़ी के चूल्हे पर पहुँची। शेर मुलाहजा है-
घर के ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है॥

सियासत रियासत की जानिब तब गौर फरमाती है जब कोई फ़साद होता अलबत्ता इंतख़ाब का माहौल हो वरना वह आवाम से बेखबर रहती है
और उसे लगता है कि सारी रियासत मेरी तरह मालामाल और महलों की बासिँदा है। गोँडवी साहब फरमाते हैं-
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए,
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब।

रियासती योजनाएँ बन तो जाती हैं लेकिन वे कागजी जाल में उलझकर रह जाती हैं और कई पुश्ते गुजर जाती हैं लेकिन जरूरतमंदोँ को उनका
फायदा नहीं हासिल होता है।गोँडवी साहब ने कितनी संजीदगी और सादगी से इस बात को बयां किया है, मुलाहजा फरमाएँ-
जो उलझकर रह गई है फाइलोँ के जाल में।
गाँव तक वह रोशनी आएगी कितने साल में॥

आज की नौजवान पुस्त कर तो बहुत कुछ सकती है लेकिन उसमें वे जज्बात नदारद हैं जो एक नौजवान में जरूरी होते हैं।पुस्ते-नौजवान में हताशा इस कदर काबिज है कि वह गुमराह हो चुकी है,जिसके अंदर बेतदाद जोशो-ताकत तो है लेकिन जरूरत है उसे झकझोड़ने की। इस काम को बाखूबी अंजाम दिया है अदम साहब ने अपनी शेरो-शायरी के जरिए, मुलाहजा फरमाएँ-
जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिजाज,
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए।

अदम साहब की नज़र से कुछ नहीं बच पाया, उनका अदबी आईना हर चेहरे के सामने से गुजरा है जिनका अक्स शेरो-शायरी में बख़ूबी उभरा है।उनकी जबान अलामती है,उन्हें बूँद में सागर भरना मालूम था। शेर मुलाहजा फरमाएँ-
मत्स्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार,
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिए।

अदब समाज का आईना कहलाता है, वह समाज का पैगम्बर भी होता है लेकिन आजकल अदब सिर्फ दिल बहलावे की चीज बन गया है।जबाने-अदब भी दिन-ब-दिन घटिया होती जा रही है।अदम साहब के अल्फाज़ में-
जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को,
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिए।

उन्होंने मुहब्बतो-इश्क  को दीगर नजरिए से देखा, शेर मुलाहजा फरमाएँ-
सुलगते जिस्म की गरमी का फिर एहसास हो कैसे,
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।

आज के दौर में आम आदमी दो वक्त की खुराक की जुगाड़ में लगा हुआ है उसके खातिर जज्बातो-तहजीब सिर्फ किताबी फलसफे हैं।अदम साहब का अदब ऐसी कई नजीरे खुद में समेटे है। जिनमें से एक शेर के साथ बात खत्म करूँगा।शेर मुलाहजा फरमाएँ-
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी,
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब।

पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पूतू’

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य स्वर्ण पदक सहित),यू.जी.सी.नेट (पाँच बार) जन्मतिथि-03/07/1991 विशिष्ट पहचान -शत प्रतिशत विकलांग संप्रति-असिस्टेँट प्रोफेसर (हिंदी विभाग,जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट,उत्तर प्रदेश) रुचियाँ-लेखन एवं पठन भाषा ज्ञान-हिंदी,संस्कृत,अंग्रेजी,उर्दू। रचनाएँ-अंतर्मन (संयुक्त काव्य संग्रह),समकालीन दोहा कोश में दोहे शामिल,किरनां दा कबीला (पंजाबी संयुक्त काव्य संग्रह),कविता अनवरत-1(संयुक्त काव्य संग्रह),यशधारा(संयुक्त काव्य संग्रह)में रचनाएँ शामिल। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संपर्क- ग्राम-टीसी,पोस्ट-हसवा,जिला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)-212645 मो.-08604112963 ई.मेल-putupiyush@gmail.com

One thought on “पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी

  • विजय कुमार सिंघल

    अदम गोंडवी के बारे में अच्छी जानकारी और उनकी रचनाओं से परिचय करना अच्छा लगा.

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