लघुकथा

“सेल्फ़ी, अच्छी या बुरी” 

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥ यानि अति सर्वत्र वर्जयेत। जैसा कि अकसर देखा जाता है कि हर तसवीर के दो पहलू होते हैं और दोनों को गले लगाने वाले लोग भी प्रचूर मात्रा में मौजूद हैं। उन्हीं लोगों में से अपना-अपना एक अलग ही रूप लेकर ईर और बीर, एक ऐसे मित्र हैं जिनकी विचारधारा कभी भी आपस में जुड़ न पाई। इसके बावजूद भी इनकी मित्रता में किसी प्रकार की कमी कमजोरी के बिना, दोनों अपने जीवन का अर्ध शतक लगाकर साथ-साथ रह रहें हैं। एक लंबी पारी खेलने वाले दोनों मित्र, पेशे से किसान हैं और अपने खेतों में अपनी-अपनी मर्जी की फसल उगाते हैं। एक धान की रुपाई करेगा तो दूसरा अरहर की बुआई करके दाल-भात खा लेगा। खान-पान, रहन-सहन, उठक-बैठक, चाल-चलन हर मोड़ पर दोनों की भिन्नता झलक जाती है। बावजूद इसके दोनों एक –दूसरे के सुख-दुख के साथी बनकर गाँव में मित्रता की मिशाल कायम किए हुए हैं और चैन की जिंदगी जी रहे हैं। मजे की बात, दोनों अपनी इच्छा और साध-सनक भी साथ ही पूरी करते हैं। अब बैल-गोरू का जमाना तो रहा नहीं, खेती-बारी ट्रैक्टर और कम्बाइन मशीन के हवाले हो गया है। ऐसे में दोनों ने एक दिन ट्रैक्टर लाकर खेती करने का विचार किया और धराऊ कपड़ा पहनकर शहर गए तथा दो नया ट्रैक्टर खरीदा गया। शाम तक घुड़घुड़ाते हुए रंग-बिरंगी दोनों ट्रैक्टर गाँव पहुँचकर ज़ोर-ज़ोर से हल्ला मचाने लगे और गाँव विकास की गठरी उठाकर चहकने लगा। कितने खेत बिना पानी के ही हरियरा गए तो कितने मुरझाकर सूखने ही लगे। खैर, गाँव वाले इकट्ठा होकर, ट्रैक्टर मुवाइना में दिल-जान से जुट गए। एक का रंग हरा तो दूसरा लाल, एक मे ट्रॉली लगी हुई है तो दूसरा लेबलर लटकाए हुए हैं। एक में लोहड़ी तो दूसरे में कल्टीवेटर का फार लगा हुआ हैं। दोनों कि भिन्नता हर एंगल पर यहाँ तक दिख रही थी कि दोनों कि कंपनी भी अलग-अलग लेवल लिए हुए थी। एक से जुताई का काम शुरू तो दूसरा माल-सामान की ढुलाई मे लग गया। गाँव वालों को ईर और बीर की बुद्धिमानी और चालाकी का राज समझ में आ गया। गाँव में ही रहाकर दोनों ने खूब विकास किया और गाँव की हर फसल लहलहाने लगी। सबका काम बिना किसी समस्या के आसानी से हो जाता था और हर लोग अपना भार ट्रैक्टर को सौंप कर खुश हो गए।
कुछ दिन बाद दोनों के मन में मोटरसायकल और कार नाचने लगी, फिर शहर गए और दो गाड़ी आ गई। अब दोनों अपनी सुविधानुसार उस पर सवार होकर रर-रिश्तेदार, पर परिवार को सँवारते रहते थे। बहुत हद तक दोनों आधुनिक हो गए थे और धीरे-धीरे कार्य-व्यापार प्रगति पर चल निकला। दौड़-धूप से राहत के लिए, वक्त की मांग अब मोबाइल पर आ गई और तीसरी बार फिर शहर की यात्रा बन पड़ी। एक सस्ता तथा दूसरा मंहगा वाला मोबाइल भी आ गया, एक से बात-चित होती तो दूसरे से गाना सुनना, वीडियो देखना तथा सुंदर-सुंदर फोटो निकालना शुरू हुआ। दोनों अपनी किस्मत पर रंगीन फोटो लगाकर कर इतरने लगे और पूरे गाँव-घर को दिखलाने लगे। समय की बात हैं कभी झटपट स्टूडियों की तस्वीर अब सेल्फ़ी पर मेहरबान हो गई है। एक जमाना हुआ करता था जब किसी विशेष कारण से ही तस्वीर कैमरे के बहार निकला करती थी पर अब तो आदमी से ज्यादे कुत्ते-बिल्ली ही लोगो को पसंद आ रहे है। लोग-बाग खूब सेल्फ़िया गए हैं, आम से खास हर लोग सेल्फ़ी पर फ़िदा हैं। शौक-मौज में अपने आप को निछावर भी कर रहे हैं। कोई पहाड़ी पर से कूद रहा है तो कोई चलती ट्रेन की हाई-स्पीड की गति को हरा रहा हैं। झरने-झाड़ी और समुद्री किनारे तो पहले से ही बदनाम हैं। भगवान भरोसे ही तेज लहरों से जीवन वापस आ पा रहा है। और न जाने कहाँ-कहाँ मनचले सेल्फ़ी का झण्डा लहरा रहे हैं और अपनी तस्वीर को विकृत बना रहे हैं। खैर नया जमाना, नई राह, खूब फल-फूल रही है। पैसा और पसीना दोनों अपने-अपने जल्वे दिखा रहे हैं और बदलती तस्वीर मेमोरी में कैद हो रही हैं। फिर कहीं जिंदवाद तो कहीं मुर्दावाद का परचम लहरा रहा है।
ऐसे मे भला गाँव कहाँ पीछे रहने वाला है। बीर के खुराफाती दिमांग पर सेल्फ़ी सवार हो गई और वह अपने गाँव के एक पुराने- जर्जरित कूएं पर चढ़कर अपनी सेल्फ़ी सुलझाने लगा कि अचानक पुराना ईंट उसका भार न सहन कर पाया और बीर भाई गहरे कूए में धड़ाम से ईटा के साथ समा गए। हल्ला मचा तो गाँव वालों की मदद से बाहर तो आ गए पर उनकी आँखों का नूर सदा के लिए अंधा होकर रह गया। ऐन वक्त पर मोबाइल ने भी अपनी सेवा समाप्त कर दी। ईर भाई को बहुत दुख पहुंचा पर क्या करते, कोई किसी की आँख तो बन नहीं सकता, हाथ मलकर रह गए। मित्र की सेवा–सांत्वना में दिन-रात लगे रहते और मित्रता की दुहाई देते रहते थे। अच्छा हुआ उस दिन ईर भाई मित्रता धर्म निभाने में चूक गए और सशरीर सलामत हैं। मौका मिलते ही खतरनाक और महंगे शौक तथा सेल्फ़ी पर अपनी वेदना उगलते रहते हैं और कुढ़ते रहते हैं। हर दिन के समाचार पत्र और टी. वी. की खबर उनको याद रहती है जिसे अपने मित्र को सुनाकर भरोसा देते रहते हैं। भबवान का शुक्र है तुम्हारी जान बच गई, आँख का क्या है सब कुछ तो देख ही लिए हो, अब सुनकर बतिया कर खुश रहों। देखों, अब न आँख रही न तस्वीर, हाँ यादें शेष हैं जो लाखों सेल्फ़ी से कहीं सुंदर है। बहुमूल्य जीवन को गिरवी रखकर सेल्फ़ी लेना मूर्खतापूर्ण दीवानगी है। इस दीवानेपन से, दिखावे से बचकर रहना भी अपने इच्छा अंकुरण का उम्दा पोषण है। आज चार की जान गई सेल्फ़ी के चक्कर में, हर रोज कोई न कोई हादसा हो रहा है। मैं वादा करता हूँ अब सेल्फ़ी वाल मोबाइल घर में कभी नहीं आएगा। सेल्फ़ी मतलब स्वार्थी ही तो होता है, इंसान जब भी स्वार्थ मे पड़ता है अपना ही नुकशान करता है। कोई भी वस्तु खराब नहीं होती पर उसका गलत प्रयोग इंसान को, समाज को, विचार को बीमार बना देता है। जैसे आज कि सेल्फ़ी दिखावे में रोज किसी न किसी के प्राण हर रही है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ