कविता

मधुगीति : स्वप्न में जब रहा था मैं !

स्वप्न में जब रहा था मैं,
कहाँ इस जगती रहा था;
मन की अवचेतन गुफ़ा में,
मैं किसी क्रीड़ा रहा था !

जाग्रति से दूर मैं जाग्रत रहा था,
सहज ही सब कृत्य मन ही मन किया था;
रहे थे अवरोह औ आरोह कितने,
रहे अगणित कष्ट औ आनन्द सपने !

हुए जाग्रत दर्द पर ना नज़र आए,
स्वप्न के अहसास भर ही रहे आए;
याद करके भी नज़ारे कहाँ आए,
पर अचेतन मन सभी वे रहे आए !

सुषुप्ति में अचेतन मन रहा जागा,
चेतना औ स्वप्न का संसार भागा;
लगा तब सपने सरिस ही जगत अपना,
भूल पाए व्यथा सुख दुख सकल अपना !

नहीं फिर निद्रा सका ले मुक्त मानस,
जागरण के जगत का आभास पाकर;
‘मधु’ को जग स्वप्न की बस रहीं यादें,
प्रभु के संग लिए सविकल्पी छलाँगें !

— गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा