उपन्यास अंश

नई चेतना भाग-९

अमर रात के उस घने अँधेरे में आगे बढ़ता जा रहा था । चलते चलते सड़क पर वह रिक्शा या कोई अन्य वाहन की भी तलाश करते जा रहा था । रस्ते में  किसी ऑटो वाले को खड़ा देख रेलवे स्टेशन के लिए पुछता तो वह बिना जवाब दिए ही किक मारकर रिक्शा भगा ले जाता । वातावरण में सन्नाटा पसरा हुआ था । इस नीरव शांत वातावरण को भेदती कभी कभी कुत्तों की आवाजें गूंज उठती जो अनायास ही अपने होने और वफादारी साबित करने का प्रयास कर रहे होते ।

गुलाबी ठंड शुरू हो गयी थी । किसी काम से आये लोग दिन ढलने के साथ ही शहर से प्रस्थान कर चुके थे और स्थानीय लोग अपने अपने घरों में दुबके पड़े थे । नतीजतन सड़कें गलियां सभी सुनी सुनी सी वीरान पड़ी दिख रही थीं । लगातार चलते रहने के कारण अमर की ठण्ड तो बिलकुल गायब ही हो गयी थी । उसके लिए इस समय ठण्ड बड़ी राहत लेकर आई थी , वरना दिन में तो उसे गर्मी के मारे नानी याद आ गयी थी। पैदल चलते हुए भी उसका मन मस्तिष्क आगे की योजनाओं पर ही काम कर रहा था । कब पहुंचेगा ? क्या करेगा ? कैसे करेगा ? इत्यादि सवालों के जवाब खुद ही ढूंढ रहा था ।

दोपहर में भी अमर भोजन नहीं कर पाया था । उस पर लगातार जारी शारीरिक श्रम के कारण जहां वह बुरी तरह थक चुका था उसे बड़े जोरों की भूख भी लगी हुई थी । शाम को भी ढाबे पर उससे कुछ खाया नहीं गया था । कुछ खाने का दिल ही नहीं हो रहा था। अब जब कि उसे धनिया का पता चल चुका था और लाख आशंकाओं के बावजूद मन के किसी कोने में उसे राहत महसूस हो रही थी । नतीजतन अब उसके पेट में चुहे उछलकूद मचा रहे थे ।  अमर हमेशा ही आशावादी रहा था और इस मामले में भी अभी उसने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था ।

रात के लगभग दस बजनेवाले थे । अब दूर से ही रेलवे स्टेशन की ईमारत दिखाई पड़ने लगी थी । और आगे बढ़ते ही सड़क के दोनों तरफ दुकानों की कतारें दिखाई पड़ने लगी थी जिनमें से अधिकांश बंद हो चुकी थी । बीच बीच में इक्का दुक्का दुकानें ही खुली हुयी थी । इनमें भी नाश्ते चाय और खाने के होटल ही खुले हुए थे ।

अमर स्टेशन पर पहुँच चुका था। भूख तो काफी लगी थी लेकिन अभी अमर की प्राथमिकता कुछ और ही थी । अमर ने टिकट खिड़की पर जाकर पहले समय सारणी की जांच की और फिर समय देखा। ट्रेन आने में अभी लगभग एक घंटे का समय बचा हुआ था। टिकट खिड़की खुली हुयी थी । अमर ने टिकट खरीद लेना ही बेहतर समझा और विलासपुर का टिकट खरीदकर स्टेशन से बाहर आ गया ।

टिकट खरीदने के बाद भी कुछ पैसे उसके पास बच गए थे सो उसने उस बचे पैसे से बचे हुए वक्त के दरम्यान अपनी भूख मिटाने का फैसला कर लिया था। ढाबे में भोजन करते हुए अनायास ही उसे अपने दादाजी की एक बात जो वो अक्सर कहा करते थे याद कर के हंसी आ गयी । कितना सही कहते थे । उसके दादाजी कहा करते थे-
भूख न देखे रुखा सुखा  प्रेम न देखे जात ।
नींद न देखे कंकर पत्थर  है ये सच्ची बात ।।

हमारे पुरखों ने कितने अनुभव और ज्ञान से इस तरह की कहावतें बनायीं हैं जो हर तरह से आज भी प्रासंगिक हैं । कहावत के मुताबिक ही खाना पसंद न आने के बावजूद अमर ने पेट भर कर भोजन किया और ढाबेवाले को पैसे चुकाकर प्लेटफार्म पर आकर बैठ गया । छोटा स्टेशन होने की वजह से यहाँ एक ही प्लेटफोर्म था । इक्का दुक्का लोग नजर आ रहे थे । थोड़ी ही देर में ट्रेन के आने की घोषणा हुयी और अगले पांच मिनट में ही ट्रेन स्टेशन पर आकर खड़ी थी । छोटा स्टेशन होने की वजह से मात्र दो मिनट का ही ठहराव था सो सभी यात्री ट्रेन के डिब्बे में घुसने की जल्दी में थे ।

अमर जहां रुका था उसके सामने के डिब्बों के दरवाजे अन्दर से बंद थे । दरवाजा खुलवाने के अधिक प्रयास के चक्कर में कहीं ट्रेन छुट न जाए अमर ट्रेन में आगे की तरफ लगे सामान्य श्रेणी के डिब्बे की तरफ दौड़ पड़ा । आगे दो ही डिब्बे सामान्य श्रेणी के थे जिसमें अन्दर यात्री ठसाठस भरे हुए थे ।

किसी तरह से अमर भी डिब्बे में चढने में कामयाब हो गया था । अमर के चढ़ते ही ट्रेन चलना शुरू हो गयी थी । बाहर लटके कुछ यात्रियों को किसी तरह अन्दर की तरफ खिंच कर यात्रियों ने ट्रेन का दरवाजा अन्दर से बंद कर दिया था । यात्रियों को बाहर से आती सर्द हवाओं से राहत मिल गयी थी। ट्रेन अपनी पूरी रफ़्तार से सरपट भागे जा रही थी । कभी कभी इंजन की जोरदार सिटी की चीख से पूरा वातावरण सहम उठता था ।

अमर को सौभाग्य से एक कोने में खड़े होने की जगह मिल गयी थी । काफी देर तक अमर यूँ ही खड़ा रहा । अब उसकी पलकें भारी हो रही थी । नींद हावी होने की कोशिश कर रही थी लेकिन अमर नींद को झटक कर जागने की पूरी कोशिश कर रहा था । ट्रेन सुबह साढ़े पांच बजे विलासपुर पहुँचने वाली थी और वह नहीं चाहता था कि वह सोते हुए आगे निकल जाए । वैसे भी खड़े होने की ही जगह नहीं थी बावजूद इसके कई यात्री एक दुसरे पर लुढ़के खर्राटे भर रहे थे।

मुश्किल से खड़े अमर को अब पैसे की अहमियत पता चल रही थी । इसी ट्रेन में जहां पैसेवाले अपनी अपनी आरक्षित सीटों पर चैन की नींद सो रहे होंगे यहाँ गरीब यात्री या अन्य ऐसे यात्री जिन्हें अचानक सफ़र करना पड़ रहा हो इस नारकीय तरीके से यात्रा करने पर मजबूर थे ।

थोड़े समय के लिए अमर के विचारों से धनिया गायब हो गयी थी और यात्रियों के प्रति उपजी करुणा ने उसकी जगह ले ली थी । लेकिन अमर सोचने के अलावा और कर भी क्या सकता था ? इसी तरह से सोचविचार करते थोड़े समय के लिए अमर के मनमस्तिष्क से धनिया की स्मृति धूमिल पड़ गयी ।  आज उसे जीवन के यथार्थ से सामना करना पड़ा था । दोपहर को घर से निकलने के बाद से अब तक कदम कदम पर अभावों में जीेनेवालों की परिस्थितियों से वह रूबरू हो रहा था । किन दुश्वारियों के बीच एक आम आदमी अपना जीवनयापन करता है उसे भलीभांति अनुभव हो रहा था ।

खड़े खड़े थक चुका था अमर सो जहां खड़ा था वहीँ बैठने की सोच कर वह निचे झुका । थोड़ी ही देर में अमर बगल के यात्रियों की तरह ही नीचे बैठ गया। सोने से पहले बड़ी मशक्कत के बाद लघुशंका के लिए अमर शौचालय के दरवाजे तक पहुंचा । थोडा जोर लगाते ही दरवाजा खुल गया था। उस छोटे से टॉयलेट में पांच यात्री किसी तरह खड़े हुए थे । दरवाजा खुलते ही उसी तत्परता से उसे अन्दर के यात्रियों द्वारा बंद कर दिया गया ।

अमर मन मसोस कर रह गया और अपनी बेबसी पर झुन्झला उठा । अब उसकी नींद काफूर हो चुकी थी । और कोई चारा न देख अमर यात्रियों के इधर उधर पसरे जिस्मों के बीच पैर रखने की जगह बनाते हुए किसी तरह दायीं तरफ के दरवाजे तक जा पहुंचा। उसके दरवाजे तक पहुंचते ही संयोग से ट्रेन रुक गयी थी । शायद कोई छोटा स्टेशन आ गया था । दरवाजा थोडा खोलकर अमर नीचे उतर गया । बाहर घुप्प अँधेरा था । मजबूर अमर दोनों बोगियों के जोड़ के बीच लघुशंका कर ट्रेन में वापस लौट आया था ।

कोई बीमार ऐसी हालत में कैसे यात्रा करता होगा ? बाबु काका ने बीमारी की हालत में कैसे यात्रा की होगी सोचकर ही उसका मन खिन्न हो उठा था । एक आम आदमी की दुश्वारियां अब एक एक कर उसके सामने आ रही थीं ।

अमर खड़े खड़े थक चुका था । जहां खड़ा था वहीँ किसी तरह बैठ गया। बैठते हुए उसका शरीर पूरी तरह से किसी दुसरे यात्री को दबा रहा था लेकिन अब उसे किसी बात की चिंता नहीं थी। थोड़े ही समय में वह अपने आपको अन्य यात्रियों के सांचे में ढाल चुका था ।

ऐसे ही बैठे बैठे झपकियाँ लेते कैसे समय गुजर गया उसे पता भी नहीं चला । यात्रियों की सक्रियता से उसकी नींद खुल गयी थी । दरवाजे के समीप ही बैठे कुछ यात्री अपने अपने सामान सहेज कर उतरने की तैयारी कर रहे थे । कुछ ही देर में ट्रेन रुक गयी । दरवाजा खुला और बेतरतीब लोग एक दुसरे को धकेलते ट्रेन से नीचे उतरने लगे । इसी भीड़ का एक हिस्सा होकर अमर भी प्लेटफोर्म पर उतर चुका था। सामने ही विलासपुर लिखा हुआ बोर्ड लगा था । पढ़कर अमर ने राहत की सांस ली ।

उसके साथ ही उतरने वाले यात्री स्टेशन से बाहर जा चुके थे । ट्रेन भी जा चुकी थी । स्टेशन लगभग ख़ाली हो चूका था । स्टेशन पर ही लगे नल पर जाकर अमर ने हाथ मुंह धोया और स्टेशन से बाहर की तरफ बढ़ गया । टी सी भी जा चुका था ।

बेरोकटोक स्टेशन से बाहर आकर अमर समीप ही एक चायवाले के खोमचे पर जा पहुंचा । उसे आगे के सफ़र के लिए जानकारी हासिल करनी थी सो उसे यही रास्ता अच्छा लगा कि चाय पीते हुए चायवाले से ही आगे का रास्ता पुछा जाए । चायवाले से चाय मांगते हुए लगे हाथ अमर ने शिकारपुर जाने का रास्ता पुछ लिया । शिकारपुर यानि सरजू का गाँव । अमर की अगली मंजील । चायवाले ने बताया अगले चौराहे से शिकारपुर जानेवाली बस उसे मिल जाएगी । यहाँ से लगभग एक घंटे का ही समय लगता है।

सुबह के लगभग छह बज रहे थे । सुर्योदय होने में अभी वक्त था । चाय पीकर अमर अगले चौराहे की तरफ निकल पड़ा ।

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।