संस्मरण

मेरी कहानी 177

रात को सो कर उठे, तैयार हुए और कमरा बंद करके डाइनिंग हाल में आ गए और बिग ब्रेकफास्ट का मज़ा लेने लगे। दो हफ्ते हम इजिप्ट में रहे थे लेकिन इन दो हफ़्तों में इतना खाया कि ना तो हम ने पहले कभी खाया था और ना ही बाद में कभी खाया। इतना खाते, फिर भी भूख लग जाती। यह भी हो सकता है कि इस का कारण वातावरण तो था ही, दूसरे जब हम टैम्पल देखने जाते थे तो घूमने के कारण भूख ज़्यादा लग जाती थी। डाइनिंग हाल से बाहर आ कर हम होटल के गार्डन में आ गए। यह गार्डन बहुत सुन्दर और बड़ा था। तरह तरह के बृक्ष थे, ख़ास कर ऊंचे ऊंचे खजूर के बृक्ष, जिन पर छोटी छोटी खजूरों के बड़े बड़े हरे गुच्छे लटक रहे थे। कुछ आगे गए तो एक स्विमिंग पूल था, जिस में कुछ गोरीआं और उन के बच्चे मज़े ले रहे थे। इस पूल के साथ ही कुछ हिस्सा ऐसा था, यहां पानी मुश्किल से दो फ़ीट गहरा होगा और इस में जगह जगह छोटे छोटे पत्थर रखे हुए थे जो एक एक फुट की दूरी पर ही थे। मैं और जसवंत इन पत्थरों पर पैर रख कर धीरे धीरे चलने लगे। इस स्विमिंग पूल के एक तरफ खाने के लिए टी शॉप थी, जिस पर चाय से ले कर बीअर तक सभकुछ उपलभद था। एक तरफ बहुत बड़ी एक भट्टी थी, जिस में पुरातन ढंग से मीट भूनते थे। हमारे पूछने पर यह बात हम को एक इजिप्शियन ने ही बताई थी। कुछ देर के लिए हम एक बैंच पर बैठ गए और बातें करने लगे। कुछ ही देर बाद एक गोरी जो होगी कोई पचीस तीस वर्ष की हमारे पास आ कर बैठ गई। यह गोरी स्विमिंग कॉस्ट्यूम में थी। उस को देख कर मुझे कुछ शर्म सी आ रही थी लेकिन वोह तो ऐसे बातें कर रही थी जैसे उस के लिए यह बात आम हो। मैं तो चुप्प रहा लेकिन जसवंत उस के साथ बातें करता रहा। वोह हंस हंस कर बातें कर रही थी कि एक इज्प्शिन लड़का उस से बातें करने लगा था। उस लड़के की टोन ऐसी थी, वोह चाहता था, मैं उस से पियार करने लगूँ लेकिन उन को यहाँ पता नहीं था कि मेरा पति और मेरी छोटी सी बेटी मेरे साथ है। उस लड़की ने बातें बहुत कीं, जो मुझे याद नहीं लेकिन एक बात मैं सोचने लगा था कि यह गोरे लोग हम से कितने आगे थे। जब वोह चले गई तो मैंने जसवंत से बोला,” जसवंत! हम लोग बहुत पीछे हैं, जो बातें इस गोरी ने हमारे साथ कीं, अगर इंडिया में होते तो इस के अर्थ गलत निकालते, इस का पति वहां स्विमिंग पूल में नहा रहा है और यह हमारे साथ इन कपड़ों में बातें कर रही थी “, जसवंत बोला,” मामा !हम लोग बहुत बुरे हैं, कहने को हम बहुत धर्मी हैं लेकिन हमारे विचार ऊंचे नहीं, तभी तो हमारे देश में इतने बुरे काम हो रहे हैं !
कुछ आगे गए तो एक गोरी बुड़ीआ जो होगी कोई सत्तर बहत्तर साल की, एक नोट बुक में कुछ लिख रही थी। र्सधाह्र्ण ही हम ने उस को हैलो कहा, तो उस ने नोट बुक पर से धियान हटा कर पुछा, ” कहाँ से आये हो, इंगलैंड से ?”, हमारे हाँ कहने से वोह हमारे साथ बातें करने लगी। उत्सुकता के कारण मैंने उन से पूछ ही लिया कि वोह किया लिख रही थी। ” एक नावल लिख रही हूँ और यह मेरा तीसरा नावल है “, बातें उस बुड़ीआ से काफी हुई लेकिन एक बात ही याद है जो उस ने बताई थी कि अगाथा क्रिस्टी का प्रसिद्ध नावल “डैथ ऑन दी नाइल”, जिस पर फिल्म भी बनी थी, इजिप्ट में ही लिखा गया था। कुछ देर के बाद हम वहां से चल पड़े और होटल से बाहर आ गए। होटल की लाइन में ही बहुत से ट्रैवल एजेंट के दफ्तर थे। दुकानों को देखते देखते हम काफी दूर आ गए थे। एक जगह खुल्ला मैदान था और बहुत लोग रेहड़ियों पर खाने पीने की चीज़ें बेच रहे थे और पास ही बहुत से टाँगे खड़े थे। एक टाँगे वाला हमें देख कर आ गया और पूछने लगा कि हम ने कहाँ जाना था। जब हम ने लुक्सर मयूज़ियम बोला तो वोह बैठो बैठो कहने लगा लेकिन जसवंत ने पैसे पूछे तो उस ने बहुत बताये। जब हम वहां से जाने लगे तो वोह हमारे पीछे ही पढ़ गया और जल्दी ही बारह इजिप्शियन पाउंड पर मान गया। अब वोह कहने लगा,” मैं तुझे रास्ते में एक प्रसिद्ध मस्ज़िद दिखाऊंगा, लुक्सर की गलियों में घुम्माऊंगा अतिआदिक” लेकिन हम उसे समझ नहीं पाए थे कि उस ने हमें दूर दूर घुमा कर, और पैसे हम से वसूल करने थे।
टाँगे में बैठ कर हम चल पड़े। एक बात हम को बहुत अछि लग रही थी कि टाँगे बहुत मज़बूत बघी जैसे थे जैसे इंगलैंड में महारानी की बघि होती है। टाँगे वाला होगा कोई पचास पचपन साल का, वोह हमें लुक्सर की छोटी छोटी गलियों में ले आया। अब हम इंडिया में रहते हुए महसूस कर रहे थे क्योंकि आगे गए तो एक तरफ दो बकरियां बाँधी हुई थीं, आगे छोटी सी दूकान थी। इस के आगे गए तो लगा जैसे हम किसी मंडी में आ गए हों। कुछ लोग हमारे पीछे पढ़ गए थे लेकिन हम ने उन को कुछ भी लेने के लिए नाह कह दी। एक लड़के के हाथ में काफी कुरान की किताबें थीं और हमें लेने को बोल रहा था, शायद हमारे सर पर पगड़ीआं देख कर वोह हमें मुसलमान समझ रहा होगा। हम ने खरीदी तो नहीं लेकिन मैंने उस के हाथ में पकड़ी किताबों को अपने माथे से छू लिया, जिस से वोह खुश हो गया और हम आगे चल पड़े। इन गलियों से निकल कर कुछ बाहर आ गए, अब हमारे सामने बहुत ही बड़ी एक मस्ज़िद थी जो कुछ ऊंचाई पर थी। यह कौन सी मस्ज़िद थी, यह तो मुझे पता नहीं लेकिन बहुत बढ़िया थी। तीन चार स्टैप चढ़ कर मस्ज़िद के आँगन में आ गए। कुछ आगे एक बड़े दरवाज़े से मस्ज़िद के भीतर दाखल हो गए। चारों तरफ हम ने नज़र घुमाई, यह मस्ज़िद आर्ट का एक नमूना ही था। दीवारों और छत पर कुरान की आयतें इतनी खूबसूरती से लिखी गई थीं कि हैरानी होती थी कि यह कैसे लिखी गई होगी। वहां एक मौलवी था। उस ने हमे बहुत कुछ बताया जो अब याद नहीं। टाँगे वाले ने हम को उस मौलवी को कुछ देने के लिए बोला, तो हम ने उस को पांच पाउंड दे दिए। बाद में हमें महसूस हुआ कि यह भी पैसे बनाने का एक ढंग ही था।
अब हम मयूज़ियम की तरफ चलने लगे। आगे कुछ चढ़ाई थी और मयूज़ियम की बड़ी दीवार शुरू हो गई थी। कुछ आगे गए तो मयूज़ियम का बड़ा लोहे का गेट था, जिस पर दो इज्पिशियन वर्दी में खड़े थे। उन से हम ने टिकट लिए और उन्होंने हमें यहां इंतज़ार करने को बोल दिया। पता नहीं उन का यह किया असूल था, जब दो आदमी गेट से बाहर आये तो हमें जाने दिया गया। वोह टाँगे वाला चले गया और दो घंटे के बाद आने को कह गया था । मयूज़ियम की बिल्डिंग काफी बड़ी और नई लग रही थी, लगता था दस पंदरां साल पुरानी ही होगी। हो सकता है, कुछ हिस्सा नया बना हो, यह मुझे पता नहीं। अंदर गए तो वोह ही पुराना इजिप्ट का इतिहास दीख रहा था। अब गाइड तो हमारे साथ कोई नहीं था लेकिन हर स्टैचू के नीचे इंग्लिश में इतिहास लिखा हुआ था। स्टैचू तो हम ने पहले भी बहुत देख लिए थे लेकिन छोटी छोटी उस ज़माने की चीज़ें दिलचस्प लगने लगीं। एक एक स्टैचू को धियान से देखने और पड़ने लगे। एक कमरे में उस समय के परसिध लिखारीओं के बुत थे जो पत्थर की शिलाओं पर कलम से लिख रहे थे और यह पुरातन भाषा में खुदा हुआ था और बहुत ही अछि तरह खुदा हुआ था, जैसे किसी प्रिंटिंग प्रैस में लिखा गिया हो। हैरानी तो इस बात की थी कि तीन चार हजार साल पुराने लोग कितने कारीगर थे। इस में देखने की जो अहम् बात थी, वोह था इस भाषा को सब से उत्तम सख्त पत्थर ग्रेनाईट पर लिखना। इस पत्थर का रंग कुछ कुछ ब्राऊन या काला था। जो बुत बने हुए थे, बहुत सफाई से बने हुए थे, जैसे उन को पौलिश किया गिया हो। एक बड़े कमरे में ऐसे ही बहुत से बुत थे, जिन में कुछ कुछ ऐसे भी थे, जिन में जैसे कोई टीचर सकूल में बच्चों को सिखा रहा हो। इस बात को अब बारह तेरह साल हो गए हैं और बहुत कुछ भूल गिया है लेकिन वोह कमरे अभी तक ज़हन में हैं। एक बड़े कमरे में उस वक्त की जिऊल्री और जूते थे जो लोग उस समय पहनते थे। हैरानी की बात यह थी कि चप्लों के डीजाइन बिलकुल आज जैसे थे और बहुत ही सुन्दर बने हुए थे जैसे आज की किसी फैक्टरी में बने हों। इन चप्लों को देख कर यह भी जाहर होता था कि इजिप्ट जैसे गर्म रेगिस्तान में चपल ही कामयाब हो सकती है क्योंकि बंद जूतों में ऐसे मौसम में चलना मुश्किल है। कुछ चप्लें जो किसी फैरो की होंगी, सोने की बनी हुई थीं। औरतों के हार सिंगार की चीज़ें जैसे माला, बड़े बड़े जीऊलरी सैट, झुमके इतने सुन्दर थे कि लगता ही नहीं था कि वोह इतने पुराने होंगे। बड़ी बड़ी कंघीआं शीशे के बक्सों में रखी हुई थीं। जीउलरी सैट कुछ तो सोने चांदी के थे और बहुत से रंग बिरंगे कीमती पत्थरों से बने हुए थे। बहुत किसम के छोटे छोटे दो दो इंच से ले कर पांच छै इंच बड़े बुत्त भी थे, जो शायद उस समय के बच्चों के लिए खिलौने होंगे। एक जगह उस समय के डाक्टरों की सर्जरी के औज़ार थे जो बहुत डिज़ाइन के थे, कैसे सर्जरी इन से वोह लोग करते होंगे, यह जानना कठिन था।
एक बड़े कमरे में उस ज़माने के लोग कैसे थे और किया किया काम करते थे, ऐसा सीन बनाया हुआ था जो बिलकुल उस समय के लोगों जैसा था जो काले रंग के थे। एक बड़ा कमरा था जिस में शीशे के बक्सों में ममियां रखी हुई थीं। इस कमरे में तापमान उस समय जैसा रखा गया था। यह तो अब याद नहीं कि यह किन लोगों की लाशें थीं लेकिन इतने हज़ार साल से इन का उसी तरह रहना हैरानीकुन था। वैसे यह लाशें इस तरह दिखाई देती थी कि जैसे इन के शरीर पर लिपटी हुई पट्टियां आज के ज़माने की हों। यह कपडे की पट्टीयां अब तक कैसे रह गई, इन पर किया कैमिकल डाला गया था, बहुत हैरान कर देने वाली बात थी। सिर्फ मुंह ही दिखाई देता था जो बिलकुल काला था और सारे सरीर सुकड़ कर छोटे लगते थे, सर के बाल जो सर के साथ ही जम्मे हुए थे, भूरे रंग के थे शायद समय के साथ रंग बदल गया हो । इतनी लाशें एक कमरे में पडी ऐसे लगती थीं जैसे हम किसी हस्पताल में हों जिस में नए डाक्टर सर्जरी सीखते हैं। यह ममी पहली दफा हम दोनों ने देखीं थी जो हमारे लिए हैरान कर देने वाली थीं। कितनी एडवांस टैक्नॉलोजी उस समय की होगी, यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था। इसी मयूज़ियम में ही ग्रीक और रोमन बादशाहों और फिलासफरों के स्टैचू थे जो यह बताते थे कि ग्रीक और रोमन लोगों का प्रभाव इजिप्ट पे पड़ना शुरू हो गया था। जिस तरह हम भारत में पृथ्वी राज और जय चन्द के किस्से पड़ा करते थे, इसी तरह उस ज़माने इजिप्ट में भी साज़शें होती रहती थीं जो बाहर से हमलों का कारण बनती थीं। इजिप्ट में दो हफ्ते रह कर हम ने यह जाना कि जो सभ्यता आज देखने के लिए सारी दुनिआं से लोग इजिप्ट को आते हैं, वोह सभ्यता बिदेशी हमलों के कारण धीरे धीरे ख़तम हो गई जिस के आख़री ऐक्टर मुसलमान थे जिन्होंने इस सभ्यता को बिलकुल ख़तम कर दिया जैसे मुसलमानों ने भारत में आ कर भारती सभ्यता को हमेशा के लिए बर्बाद करने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी थी। अलाउदीन खिलजी का नालंदा विश्वविदियालिया को बर्बाद कर देना यही दर्शाता है।
यह तो भला हो, अँगरेज़ फ्रैंच और कुछ और पछमी देशों का जिन्होंने इजिप्ट का पुराना इतिहास दुनिआं के सामने ला दिया और अभी तक इस में लगे हुए हैं। इजिप्ट के पुरातन नूबियन लोगों को बचाना भी अंग्रेज जर्मन और फ्रैंच लोगों का काम ही है। जब असवान डैम बना था तो उस समय भी इन लोगों ने ही ज़्यादा शोर मचाया था और यूनेस्को को इतना खर्च करना पड़ा था। इन पछमि बिदेशी लोगों ने दुनिआं को लूटा भी बहुत था लेकिन देश छोड़ने के बाद दे कर भी बहुत कुछ गए थे । आज का कायरो मयूज़ियम इन लोगों की ही देन है और इसी तरह भारत में भी बहुत मयूज़ियम बनाये गए थे जिन की बिल्डिंग भी अभी तक अंग्रेजों की बनाई हुई ही हैं।
लुक्सर मयूज़ियम में दो घंटे हम ने गुज़ारे कुछ फोटो हम ने लीं और गेट की तरफ चल दिए। टाँगे वाला अभी आया नहीं था, इस लिए गेट कीपरों के छोटे से कमरे में ही हम कुर्सियों पर बैठ गए। कोई आधे घंटे बाद वोह टाँगे वाला आया और हम टाँगे में बैठ कर होटल की तरफ चलने लगे। जब जसवंत पैसे देने लगा तो वोह और पैसे मांगने लगा और कहने लगा कि वोह हमें जगह जगह घुमाता रहा और मस्ज़िद भी ले गया था। कुछ और पैसे दे कर हम ने उस से पीछा छुड़ाया और हम पहले सीडीआं चढ़ कर विंटर पैलेस की फ्रंट गैलरी पर आ गए, यहां एक चाय वाले का स्टाल था और काफी कुर्सीआं मेज़ लगे हुए थे। कुछ गोरे गोरीआं चाय पी रहे थे। हम ने भी दो कप्प चाय और केक का आर्डर दे दिया और एक जगह बैठ गए। वोह हमारे आगे दो कप चाय और केक रख गया और चाय का मज़ा लेने लगे और साथ ही हम नीचे सड़क का नज़ारा देखने लगे। कुछ देर बाद चाय पी कर अपने रूम में आ कर कुछ देर के लिए बैड पर लेट गए। कोई दो घंटे आराम करके हम स्नान करने लगे। धोये हुए हमारे कपडे वोह सफाई वाली औरतें रख गई थीं। जब कपडे बदले तो अँधेरा होने को था। हम नीचे आ कर बाहर को खाने के लिए चल पड़े। आज हम ने उस इजिप्शियन के छोटे से होटल में जाना था, जिस ने हमें राजा मसाला दिखाया था। जब हम वहां पहुंचे तो कुछ गोरे बैठे खा और पी रहे थे। वोह इजिप्शियन खुश हो कर हमे मिला और हम ने उसे दो स्टैला लाने को बोला और साथ ही चिकन करी का भी कह दिया। कोई एक घंटा हम बैठे बातें करते रहे, जब वोह इजिप्शियन मीट चावल की प्लेटें ले आया जो देखने में अछि लगती थीं। इस के बाद वोह सलाद और कई चटनियाँ भी रख गया।
हम खाना खाने लगे लेकिन राजा मसाले से जो करी उस ने बनाई थी, इतनी अछि हम को लगी नहीं और मैं और जसवंत बातें कर रहे थे कि इस में किया नुक्स था। मैंने कहा, ” इस में पिआज तो बिलकुल है ही नहीं, सिर्फ मसाला ही मसाला है और मिर्च भी है नहीं “, जब खाना ख़तम हुआ तो वोह बिल ले के आया और हम से पूछने लगा कि करी कैसी थी। मैंने ही जवाब दिया कि वैसे तो अछि थी लेकिन क्योंकि यह इंडियन मसाला है, इस लिए इस को बनाने का ढंग इलग्ग है और अगर वोह जैसे मैं बताऊँ, उसी तरह बनाये तो अँगरेज़ लोग उस के होटल में बहुत आएंगे। वोह तो एक दम अंदर गया और पेपर पैन ले आया। फिर मैंने उस को, कितने चिकन के लिए कितने पिआज अदरक और लसुन चाहिए लिखाया और कब तक उन को भूनना था, बताया और फिर उस में टमैटो कितने चाहिए लिखाया। आखर में मसाला और चिकन डाल कर पकाना बताया। वोह तो इतना खुश हुआ कि हमें कल फिर आने को बोला और वोह इसी तरह बना कर हमें खिलायेगा। कल आने का वादा करके और पैसे दे कर हम बाहर आ गए लेकिन इस होटल में फिर आने का हमें चांस ही नहीं मिला। उस ने मेरे कहने पर उसी तरह बनाया होगा या नहीं, हम को पता नहीं। चलता . . . . . . .