गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल- प्रवासी ज़िन्दगी

 

कहने को हम घर में हैं.
पर हर वक्त सफ़र में हैं.

नींद नहीं है आँखों में,
कब से हम बिस्तर में हैं.

ये न समझ में आता है-
कब घर, कब दफ़्तर में हैं.

क़ैद परिंदा पिंजरे में,
लाख उड़ानें पर में हैं.

अपने घर से दूर हुये,
रहते दुनिया भर में हैं.

ना खुशियाँ थीं नोटों में,
ना खुशियाँ डॉलर में हैं.

— डॉ.कमलेश द्विवेदी