कविता

कविता – प्यार

प्यार
कोई सुंदर बोलता – कोई हँसीन
कोई पवित्र बंधन – कोई और

हर दिशा – तरुण-तरुणी
बाहें थामकर – कंधे लिटाकर
अंक में बिठाकर – तन से समेटकर

चौकियों पर, खड़ी धूप में – छतरियों की आड़ में
बाग-पेड़ों नीचे, लान पर – झुरमुटों की आड़ में
सिलसिले-सिलसिले, पलंगों पर – आम-कक्षों की आड़ में

भरी भीड़ की हज़ारों निगाहें – उन चेहरों से अपरिचित
मगर असहन देह, मानो कटे केंचुए – हर निगाह से परिचित
छिपे चेहरों के लोक चतुराई से – झलकती दाहक भावनाएँ गरम अधरों से

प्रत्यक्ष दुनिया में जहाँ-तहाँ – छोटी-छोटी हज़ारों दुनियाँ
किंतु दो पल की
स्निग्ध उँगलियों का छूना
जोशीली देह सुन्न कर देना
खिलती-मलती छोटी-सी कलियाँ
खिलते हुए भी सुगंध है कहाँ?

डी. डी. धनंजय वितनगे – श्री लंका