लघुकथा

नाराज़गी

 

पिताजी माँ से काफी समय से नाराज़ थे । उन्हें लगता था उनकी पत्नी का चाल चलन सही न था । हाँ यूँ कह सकते है थोड़ा शक़ था उनपर ।

और माँ थी जो अपने मस्त अंदाज़ में जीवन बिताती थी। उन्होंने कुछ समय तक तो प्रयास किया की नाराज़गी दूर हो जाये पर जब कोई नतीजा नहीं निकला तो वे चुप हो गयीं । उनका क्रम फिर भी वही रहा ,जो काम पिताजी के लिए करतीं थी आज भी कर रहीं थी । उनको देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे दुःखी थीं ।

अचानक एक दिन घोषणा हुई कि देश में पाँच सौ और हज़ार के नोट बन्द हो गए । अफरा तफ़री मच गयी है हर जगह । अब पिताजी परेशान थे क्योंकि उन्होंने अपना काला धन घर में छुपाकर रखा हुआ था  । अब उनसब रुपियों को कैसे दिखाएंगे ।  और भी चिढ़ चिढ़े हो गए थे । घर का माहौल और बिगड़ने लगा था ।

गुस्से में वे घर से बाहर जा रहे थे । अचानक उनका ध्यान एक लिफ़ाफ़े पर गया । उसको उठाकर देखा तो उसपर उनका ही नाम लिखा हुआ था । ख़ोल कर जब देखा तब उनकी नज़र उनकी पत्नी की तरफ़ पड़ी जो उनके चहरे के रंग को बदलते देख खुश हो रही थी ।

लिफ़ाफ़े में एक रसीद थी जिसमें कुछ डोनाशन्स की रसीदें थीं ।

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट श्री द्वारकाधीश मन्दिर चौक बाज़ार भोपाल 462001 मो न. 9424473377