कथा साहित्यलघुकथा

भूख –

“तू फिर आ गयी!! कहती थी मुनेश का कोई नहीं है जो तुझे निकलेगा| बहुत प्यार से रखेगा तुझे ! क्या हुआ जो दो महीने ही इस डेहरी पर फिर से सर पटकने आ गयी ?”
“प्यारी बातों में फंस गयीं थी मौसी! सच कहती हूँ अब कभी भी तेरा दर न छोड़ के जाऊँगी|” मौसी के पैरों में पड़ी बिलखती आँखों में पुराना सारा वाक्या चलचित्र की भांति तैरता रहा |

वह थैली से पाउडर लिपस्टिक निकाल कर सृंगार कर रही थी कि मुनेश कोठे पर आ गया| थैली जबरजस्ती छिनकर उसने बाहर फेंक दी थी|
“ये क्या कर रहे हो?”
“तुमसे कितनी बार कहा ये रसिको के लिए सृंगार-पटार छोड़| चल मेरे साथ रानी बना के रखूँगा|”खूबसूरत चेहरे पर हाथ फिराते हुए बोला|
“कैसे विश्वास करूं, तुम मर्द सब एक जैसे होतें हों! यहाँ आराम से रह रहीं हूँ| मौसी मेरे हर एक शौक हों, तकलीफ हों सबका ध्यान रखतीं बिलकुल बेटी की तरह|
दो साल पहले ऐसा ही कुछ कहके ले गया था रौनक| जैसे ही परिवार वालों को बताया मेरे बारें में| घर से निकाल दिया कुलटा कहके ससुर ने| वह सिर झुकाये खड़ा रहा| वह तो मौसी भली औरत है मुझे फिर से अपने आंचल में छुपा लीं| वरना कहाँ जाती मैं! बाप ने तो गरीबी से तंग आकर बेच दिया था मुझे|” जख्म आँखों से रिस आए|
“मैं तेरे साथ ऐसा कुछ न करूंगा, विश्वास कर मेरा!”
“दो बार धोखा खा चुकी हूँ, तिबारा धोखा खाना मुर्खता है| मुनेश तू जा मैं न आऊँगी तेरे साथ|” अपनी सृंगार की पोटली उठाने बढ़ी जमुना|
“सच्ची कह रहा हूँ, बड़े प्यार से रखूँगा! कोई भी तकलीफ न दूंगा तुझे| मेरे तो माँ बाप भी नहीं हैं जो तुझे निकालेंगे घर से|” उसे पकड़ते हुए बाहें पसार कर बोला|
सुनकर जमुना उसकी खुली बाहों में सिमटकर रौनक से मिला दर्द भूल गयी|

जैसे ही मौसी ने अपने पैरों पर से उसे उठाया वह कराह उठी मुनेश द्वारा की पिटाई के दर्द से|

सिसकते हुए बोली-“मौसी तू बुरे काम में भी कितना ख्याल रखती है और वह जानवर रोज चार को ले आता था| रूपये कमाने की मशीन बना छोड़ा था मुझे| एक थैला रख रखा था उसने| रोज ही जब तक उसका थैला नोटों से न भर जाता वह मुझे कुत्तों के सामने डालता रहता था |
स्साला कुत्ता कहीं का| आss थू मर्दों पे| स्साले कहते रहते औरत औरत की दुश्मन हम औरतों के असली दुश्मन तो ये है साले |” मौसी की दहलीज पर गिडगिडाते हुए उसकी जबान ही न आंखे भी अंगार बरसा रही थीं|

उसके दुःख से व्यथित होकर मौसी ने बाहें पसारी तो मौसी की बाँहों में सिमटकर अपना सारा ही दर्द वह भूल गयी| सविता मिश्रा

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|