लघुकथा

बहू – बेटी

नागरजी फोन का रिसीवर रखकर खिन्न मन से सोफे पर आकर बैठे ही थे कि सरला नजदीक आकर खड़ी हो गयी । ” क्या कहा उन लोगों ने ? ” सरला ने नागरजी से पुछा ।
नागर जी ने बुझे मन से अपनी धर्मपत्नी की तरफ देखा और बताया ” मीनू के ससुर जी धर्मदास ने एक महीने के भीतर पांच लाख रुपये मांगे हैं । नहीं तो वो मीनू के लिये जीना मुश्किल कर देंगे । अब समझ में नहीं आ रहा कि इस पैसे का इंतजाम कैसे हो ? अजय का कारोबार भी मंदा चल रहा है । इतनी रकम निकालते ही उसका कारोबार ठप हो जायेगा । ”
दरवाजे की ओट में खड़ी नागरजी की बहू पूनम ने पूरी बात सुन ली थी । धीरे से सरला से बोली ” माँ जी ! अगर आप इजाजत दें तो मैं अपने पापा से कुछ पैसे ले आऊं ? उनके पास पड़े हैं पैसे । हमारी मदद करके उन्हें बहुत ख़ुशी होगी । ”
पूनम की बात नागर जी ने सुन ली थी । धीरे से उन्होंने कहा ” बेटा ! हम तुम्हें अपनी बेटी मानते हैं । हमें तुम पर गर्व है । लेकिन बहू के मायके से मदद लेना हमारे उसूलों के खिलाफ होगा । ”

अपने लिए ‘ बेटी ‘  का सम्बोधन और गर्व की बात सुनकर पूनम के मुख मंडल पर नयी आभा चमक रही थी ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।