भाषा-साहित्य

विश्व व्यापी हिंदी का भारतीय मोड़

हिंदी एक ऐसा जादूगर है, जो मानवों के हृदय में दिन-ब-दिन हमला किया जा रहा है। आज तक उस हमले की गति का सिलसिला बढ़ता जा रहा है और मानव भी अपने-आप उस करामत की ओर खींचा जा रहा है। इसके पीछे का सबसे प्रमुख कारण हिंदी की अनेकता है। प्रयोग, क्षेत्र, मानव के मनःस्थिति आदि की पहलुओं पर आधारित हिंदी की अनेकता मानव की मनःस्थिति के अनुकूल अनेक रूप धारण करते हुए ज़बान पर चढ़ती है। दुख, प्रेम, प्रसन्नता, हर्ष, अकेलापन, मस्ती, दुष्टता आदि मानव की हर किसी भावना से जुड़ी हुई हिंदी की अलग-अलग पहचान है, जिनके द्वारा श्रोताओं में भी उसी भावना का उत्पादन कर दिया जाता है।
आज तक विश्व के अधिकांश लोगों के द्वारा बोलनेवाली भाषाओं में हिंदी तृतीय स्थान पर खड़ी है, और द्वितीय स्थान पाने का सिलसिला होता जा रहा है। 19वीं शताब्दी में ब्रितानी और फ्रेंच में उपनिवेश में रखे गये भारतीय शर्तबंद मज़दूरों के साथ आरंभ हुई प्रवासी भारतीयों की हिंदी आज ‘प्रवासी हिंदी’ नाम को लेकर विश्व भर घूम रही है। आज उसका बढ़ाव मॉरीशस, फीजी, गुयाना, सूरीनाम, ट्रिनिडाड-टुबैगो, बर्मा, थाईलैंड, नेपाल, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, नार्वे आदि लगभग सौ से अधिक देशों तक हुआ है, बल्कि उसके प्रयोगकर्ताओं की संख्या 2 करोड़ से बढ़कर है। मातृ भाषी भारत वासियों की हिंदी अंतःराष्ट्रीय स्तर पर ‘विश्व भाषा’ का रूप भी धारण कर चुकी है और अन्य विदेशी भाषियों में ‘संपर्क भाषा’ के रूप में लोकप्रिय हो रही है।
वास्तव में अंतःराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी जिस मोड़ पर ठहरी है, जिसके पीछे हिन्दी सिनेमा का विराट भूमिका है, वहाँ से डेढ़ सारे रास्ते खुल चुकी हैं, जिनसे निकली हिंदी रूस, अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, फ्रांस, रूमानिया, चीन, जापान, स्वीडन, पोलैंड, आस्ट्रेलिया, मैक्सिको, श्री लंका आदि देशों तक पहुँच चुकी है।
एक ओर विश्व भाषा हिंदी जितनी स्वावलंबन हो रही है, दूसरी ओर राष्ट्र भाषा हिंदी उससे कई ज़्यादा घट रही है। आज हिंदी विदेशी भाषियों को हिंदी प्राध्यापक बना रही है, भारत उसी हिंदी को एक ऐसा मोड़ पर ले आया है, जहाँ से निकलती गलियों पर हिंदी को कम महत्व मिलना रुका नहीं जाता। इतनी परिनिष्ठित हिंदी, जिसके पीछे विराट इतिहास है भारत में दिन-ब-दिन घुल रही है, जिसका परिणामवश वास्तविक भारतीय पहचान विकृत हो रही है, क्योंकि हिंदी का उत्तर भारतीय संस्कृति से अटूट रिश्ता है, जिसे मानव के अपनापन तथा एकता का एक स्रोत कहना तर्कसंगत है।
हिंदी का इतिहास भारत से आये आर्यों की भाषा वैदिकी संस्कृत तक दौड़ता है। (1500 ई. पू. के आसपास) तब से हिंदी की पैदाइश होने तक भारत में कालक्रमानुसार जिन भाषाओं का प्रयोग होता रहा उन सभी का समावेश हिंदी के सूत्रपात से है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ओर अंग्रेज़ भारतीय संस्कृति का ध्वंस कर रहा था, तब भी हिंदी में उनसे ठोकरे खाते हुए राष्ट्र भाषा संग्राम में भी मुसलमानों की भाषा उर्दू से टकराने की शक्ति इसलिए थी, क्योंकि हिंदी एक भाषा ही नहीं ठहरी, बल्कि भारतियों की संपर्क करने की संस्कृति भी रही। आज हिंदी स्वतंत्र भारत की राष्ट्र भाषा है। उत्तर भारत के दस राज्यों की राज्य भाषा है, पूरे भारत की जनता की संपर्क भाषा है।
सन् 1947 में मिली स्वतंत्रता के साथ अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा, अपितु उनहोंने अपने जिन चीजों को भारत में छोड़ आया है, उनके द्वारा तभी से भारतीयता को गोरा बना दिया जा रहा है। उस शिकारी की ओर हिन्दी का जुज़रना डिब-ब-दिन तेज़ हो रहा है। आज वह दशा यहाँ तक पहुँच गयी है कि अपनी मातृ भाषा हिंदी से संपर्क करना लोग शर्म कि बात समझते हैं।
समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं की हिंदी में श्ब्दोच्चारण तक बदलाव आ गया है। शब्दों में चंद्रबिंदु चला ही गया है, उसकी कमी बिंदी ने पूरा कर दी है। ‘ज़’ का भी वही स्थिति, जिसकी कमी ‘ज’ पूरा कर रहा है। इसका फलस्वरूप पाँच का पांच, गाँव का गांव आँगन का आंगन हो गया है तो, सज़ा का सजा, ज़रूर का जरूर और मज़ा का मजा। दूसरी ओर समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं की हिंदी क्रमशः अंग्रेज़ीकरण हो रही है। हर विज्ञापन के, हर आलेख के, हर कविता के हर अनुच्छेद में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग होना आम कारण बन चुका है। कभी-कभी हिंदी विज्ञापनों में पूरे अंग्रेज़ी वाक्य तक छपता है।
दूरदर्शन तथा रेडियो के स्तर पर प्रस्तुतकर्ताओं तथा आख्यापकों के द्वारा अपने प्रस्तुतीकरण में जिस भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, जो इतना अशुद्ध है कि किसी शुद्ध भाषा की कल्पना करना न मुमकिन हो गया है। इनकी हिंदी का व्याकरण बेडौल बन गया है। लिंग का एहसास चला ही गया है। वाक्यों की शुरूआत हिंदी में, अपितु उसका अंत अंग्रेज़ी में, बल्कि उर्दू का भी समावेश। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विदेशियों के हृदय तक हिंदी पहुँचने का वाहक बोलिउड की दुनिया है, लेकिन आज वह दुनिया आधे से ज़्यादा अंग्रेज़ीकारण बन चुकी है। उनके संवाद, गीत ही नहीं चलचित्रों के नाम भी अंग्रेज़ी में निकलने लगे हैं। सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि हिंदी चलचित्रों के संवाद का लिपिबद्धीकरण अंग्रेज़ी लिपियों से होता है। बोलिउड की दुनिया, जिसका सूत्रपात उत्तर भारतीय संस्कृति पर निर्भर थी तथा उसकी हिंदी माध्यम से अलग पहचान थी, आज उसी दुनिया में गुज़रनेवाला मानव-संसाधन की हिंदी टूटी-फ़ूटी हो गयी है, आधी अदूरी रह गयी है।
भारत की गली गली पर हिंदी के साथ अंग्रेज़ी भी गूँजने लग गयी है। आम जनता की मनःस्थिति यहाँ तक बदल गयी है कि वे हिंदी के साथ कोई कमी का अनुभव करने लगे हैं। अंग्रेज़ी दृष्टिवाद की जड़ों ने हिंदी को भी घेर लिया है। अंग्रेज़ी पैंट, कमीज़ तथा सङ्ग्लज़ पहनने के बाद हिंदी में बोलना शर्म की बात समझी जाती है। भारत की नयी पीढ़ी ढेड़ सारे हिंदी शब्द, उनके मानक उच्चारण नहीं जानते, जो उनकी गलती नहीं, दृष्टिवाद का प्रभाव है, यहाँ तक का वातावरण उसकी पुरानी पीढ़ी के द्वारा निर्माण किया गया है।
हिंदी व्याकरण पर कार्यरत फ्रांस के डॉ. निकोल बलबीर के द्वारा फ्रेंच भाषियों के लिए “हिंदी मैनुअल” तैयार किया गया है, तो भारत वासियों के द्वारा अपने बच्चों की पढ़ाई का माध्यम अंग्रेज़ी बना दी गयी है। अमेरिका में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी समझने और सीखनेवालों की संख्या लाखों में है, तो भारत में अंग्रेज़ी को मातृ भाषा का पद मिल रहा है। जापान के प्रो. क्यूया दोई के द्वारा ‘हिंदी-जापानी कोश’ तथा ‘जापानी-हिंदी कोश’ की रचना की गयी है, तो भारत के हिंदी कोश ग्रंथ पुस्तकालयों में छिपे जा रहे है। श्री लंका तथा चीन में हिंदी की प्राध्यापक प्रजा दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और स्कूली शिक्षा के बाद हिंदी की पंचवर्षीय स्नातक पढ़ाई की व्यवस्था की गयी है तथा बी. ए., एम. ए., और पी. एच. डी. का भी व्यवस्था की गयी है।
राष्ट्र भाषा आंदोलन में 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा के द्वारा हिंदी राष्ट्र भाषा के रूप में घोषित की गयी, जो हिंदी की बहुत बड़ी जीत रही। उसी जीत के मनाने तथा भारत के अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने हेतु सन् 1953 सितंबर 14 से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के द्वारा पूरे भारत में हिंदी दिवस मनाने का आयोयन किया गया। आज यह तिथि भारतियों को हिंदी की याद दिलाने का साधन मात्र बनता जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जब 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मानाते हुए दूसरे देशों के करोड़ों जनता हिंदी को अपना रही है, भारत वासी उसी हिंदी से खुदका क्या रिश्ता है? यह बताना ‘गँवारापन’ समझने लगे हैं।
अंग्रेज़ी संस्कृति मानो मोर है, जो अपने पंकों से भारतियों को फ़िदा करवाते हुए निज पूँजीवाद का शुक्राणु भारत में जगह-जगह छोड़ चला गया। उसकी सफलता यहाँ तक पहुँच गयी है कि जब अंग्रेज़ भारत को छोड़कर 70 वर्ष हो रहा है, तब अंग्रेज़ी संस्कृति का बच्चा किशोर बन खड़ा रहा है। इस माहौल में अंग्रेज़ी हर किसीको खास बना ही देती है, किंतु हिंदी उन्हें आम बना देती है।
श्री लंका के केलणिय विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापक उपुल रंजित हेवावितानगमागे का कहना है, “भारत से ज़्यादा श्री लंका में हिंदी सुरक्षित है”। लिखने तथा बोलने के लिए प्रामाणिक व्याकरण से युक्त, संस्कृत, पालि, अपभ्रंश जैसी गहरी भाषाओं से होते हुए उपजी, विभिन्न शैलियों, प्रयोगों के विचार-विमर्श से बनी मानक हिंदी, जो स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ों के विरुद्ध उठा भारतीय वीरों का नुकीला अस्त्र रहा, आज उन्हीं के द्वारा उसी अंग्रेज़ी को अस्त्र बनाकर जान बूझकर अपना महान शिष्टाचार का ध्वंस किया जा रहा है।

डी. डी. धनंजय वितानगे – श्री लंका