लघुकथा

शीशे का घर

खबर ही ऐसी थी । देखते ही देखते यह खबर जंगल के आग की तरह पुरे मोहल्ले में फ़ैल गयी थी । मोहल्ले के गणमान्य प्रतिष्ठित महाजन किशनलाल की बेटी पूजा ने साथ ही पढ़नेवाले एक हरिजन युवक कमल  से प्रेमविवाह कर लिया था ।
खबर फैलते ही किशनलाल जी ने अपने आपको शर्मिंदगी से बचाने हेतु स्वयं को परिवार सहित घर में कैद कर लिया था ।
आखिर कब तक ऐसे चलता । धीरे धीरे किशनलाल के लिए स्थितियां सामान्य हो चली थीं । किशनलाल ने अपनी बड़ी बेटी पूजा का एक तरह से परित्याग ही कर दिया था अर्थात उससे हर तरह का सम्बन्ध तोड़ लिया था ।
गाँव के कुएं पर पानी भरने गयी किशनलाल की पत्नी और पुत्री को अन्य  महिलाओं के जहर बुझे तानों का सामना करना पड़ा । कुछ देर  तक सहन करने के बाद किशनलाल की छोटी पुत्री रश्मि से  न रहा गया । गाँव की ही एक दुसरी महिला प्रेमवती से बड़े ही तीखे अंदाज में बोली ” चाची ! तुम तो कम से कम न ही कुछ बोलो तो अच्छा है । मुझे अच्छी तरह पता है कि तुम्हारा इकलौता लड़का समीर अब एक मुस्लिम के घर में उसकी इकलौती लड़की से शादी करके घरजमाई बन कर रह रहा है और इतना ही नहीं अब वह समीर भी नहीं रहा वह साजिद बन चुका है । ”
इससे पहले कि रश्मि दुसरी महिलाओं के बारे में भी कुछ बोलती सभी महिलाओं ने चुप्पी साध ली और वहां से चलती बनीं । प्रेमवती भी समझ गयी थी ‘ जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं दुसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते । ‘

रश्मि के अंतर्मन में भी आलोचनाओं से मुकाबला करने का साहस आ गया था ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।