लघुकथा

गुनाह

करण के पड़ोस में रहने वाले शर्माजी जाते हुए करण के पिताजी से मिलने आये हुए थे  । शर्माजी ने उन्हें बताया ” पत्नी की मृत्यु के बाद अकेलापन महसूस कर रहा था कि बड़ी बेटी और दामाद आ गए हैं और मुझे अपने साथ ले जाने की जिद्द कर रहे हैं । आज सुबह ही छुटकी का भी फोन आया था । अपने यहाँ आने के लिए कह रही थी । उनके प्यार और आग्रह को देखते हुए मुझे उनके साथ जाना होगा । तब तक जरा मेरे घर की तरफ भी ध्यान देना । ” विदा लेकर शर्माजी चले गए थे ।
अपनी पत्नी और माँ के बीच हो रहे नित नए झगड़े से परेशान करण ने अपने माँ बाप को वृद्धाश्रम में छोड़ आने का फैसला किया ।  अपनी दबंग पत्नी को नाराज करने की जुर्रत करण नहीं कर सकता था । अनचाहे ही सही करण माँ बाप को वृद्धाश्रम के नजदीक पहुंचाकर वापसी के लिए मुड़ा लेकिन फिर रुक गया । उसकी दुविधा को ताड़कर उसके पिताजी ने बड़े ही स्नेह से उसे पुचकारा और कहा ” बेटा ! तुमने वही किया है जो तुम्हें करना चाहिए था । तुम अपने मन में कोई अपराध बोध मत पालो । आज जो भी हुआ है उसके जिम्मेदार तुम नहीं हम खुद हैं । काश ! बेटे की चाह में हमने अपनी दो बेटियां जन्म से पहले ही कुर्बान नहीं की होती । कम से कम आज शर्माजी की तरह  हमारी बेटियां तो हमारे साथ होतीं । लेकिन भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं और देखो हमें हमारे गुनाहों की सजा यहीं मिलनी शुरू हो गयी है । “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।