कहानी

मुफ्त के लड्डू

कचहरी में ज्यादातर वक़ील सारा दिन ख़ाली ही बैठ कर चले जाते हैं| उनके पास सामाजिक, राजनीतिक और क्रिकेट की चर्चाओं के सिवा कोई और काम भूले भटके ही आता है| हाँ कुछ विरले वकील ऐसे भी हैं जिनके पास काम का ढेर लगा रहता है और फिर भी नया काम आता ही रहता है|
आज भी कचहरी में कोई ख़ास काम नहीं था| शर्मा जी और अरोड़ा साहब के बीच मलिक साहब को लेकर सामाजिक चर्चा चल पड़ी|

‘अरोड़ा साहब! आजकल मलिक साहब के तो ‘दोनों हाथों में लड्डू’ रहते हैं|
‘दोनों हाथों में लड्डू?…. क्या मतलब है…. शर्मा जी|’
‘अरोड़ा जी आप तो जानते ही हैं, मलिक साहब आजकल के नए-नए प्रेमी-प्रेमिकाओं की कोर्ट मैरिज करवाते हैं| कुछ दिनों बाद उनको पारिवारिक जिम्मेदारियों का ‘हाड़ फोड़ खसरा’ दिखने लगता है, तो इन आशिकों के सिर से इश्क़ का भूत उतर जाता है| फिर वह तलाक़ के लिए मलिक साहब की सेवाओं में हाज़िर हो जाते हैं| क्यूँ हुआ न दोनों हाथों में लड्डू| भाई शादी के लिए भी वही क्लाइंट और तलाक़ के लिए भी वही|’
‘शर्मा जी! यह तो है| परन्तु आप कुछ भी कहो| मुझे पुराने ज़माने का कहो| मेरी घटिया सोच का कहो| जो आपकी मर्जी कहो| परन्तु मैं इस प्रेम विवाह के विरुद्ध हूँ|’
‘विरुद्ध तो मैं भी हूँ अरोड़ा साहब| भाई जी! माँ बाप कितने जतनो से बच्चो को पालते पोस्ते हैं| उनको अच्छा भविष्य देने के लिए महंगे स्कूलों में पढ़ाते हैं| खुद पंखे की हवा में और बच्चों को पढ़ने के लिए ऐ.सी. उपलब्ध करवाते हैं| फिर ये बच्चो कॉलेजों में आकर किताबें खोलने के स्थान पर इश्क़ का अकॉउंट खुलवा लेते हैं| माँ बाप को कानों कान खबर भी नहीं हो पाती|’
‘भाई क्या बीतती होगी उन माँ बाप पर जो बच्चे उनका मान सम्मान मिट्टी में मिला कर रख देते हैं| मेरा मानना है ऐसे बच्चे जिस वकील के पास आते हैं उस वकील को उन्हें समझना चाहिए कि अपने माता पिता की रज़ामंदी से शादी करो| देर सवेर वह तुम्हारे प्यार को स्वीकार कर लेंगे|’
तभी मलिक साहब का आना हुआ
‘साहब बहादुर यदि ऐसे क्लाइंट को समझा समझा कर छोड़ने लगे तो भूखों मरने की नौबत आ जाएगी|’
‘अरे मलिक साहब! आप तो एक्सपर्ट हो चुके तो इस तरह के केसों में| अब तो जिसे देखो वही आपकी तरफ खींचा चला आता है प्रेम विवाह करवाने के लिए|’
‘समझना तो उन माँ बाप को चाहिए जो ऐसे बच्चों का विरोध करते हैं| वैसे भी भई शर्मा जी! हम तो हवा के रुख़ को देख कर चलते हैं|’
‘हाँ….. हाँ…. वह तो दिख ही रहा है| आजकल तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू जो रहते हैं|’
‘आज तो फाइलें ही हैं, आज लड्डू वाले नहीं आए…… हा हा हा|’
‘भूल जाओ मलिक साहब आज के नए दौर में कोई दिन ऐसा नहीं जाता जिस दिन शादी के लड्डू न बटें| आज भी लड्डू बंटने हैं परन्तु आपके केस के नहीं|’
‘रंगा साहब! ऐसे कैसे हो सकता है? मेरे सिवाय प्रेमी जोड़ों की शादी दूसरा कौन करवा रहा है?’
‘भाई मालूम नहीं वहाँ स्मिता मैडम की कोर्ट में एक काचा-काचा जोड़ा आया हुआ है शादी करने|”
‘हमें तो मुफ्त के लड्डू खाने से मतलब है| चलो यारो चलते हैं स्मिता मैडम की कोर्ट में|’
मलिक साहब के आदेश पर सभी साथी वक़ील मुफ्त में लड्डू खाने स्मिता मैडम की कोर्ट की तरफ चल दिए| वहाँ पहुँच कर देखा तो मलिक साहब उस जोड़े को देख कर ठन्डे पड़ गए| उनके मुँह से शब्द फूटे
‘मैडम यह शादी मत करवाओ| यह दोनों मेरे बेटा-बेटी हैं|’

विजय ‘विभोर’
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विजय 'विभोर'

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