गीतिका/ग़ज़ल

“गीतिका”

चाह हुई की मिल आऊँ खुद जाकर अपने बापू से

पकड़ चला हूँ अंगुली जिनकी लेकर सपने बापू से

बहुत लुटाया बहुत जुटाया उनकी भरी तिजोरी ने

देख तो आऊँ कोना कतरा अब के कहने बापू से।।

शाम हुई होगी उनकी आकर दोपहरी चली गई

लाल लालिमा भंग भंगिमा पाया पखने बापू से।।

निरख रही होगी वे राहें अपनी चितवन सिकुड़ाए

टपक पड़ेंगी देख के हुलिया छाया छतने बापू से।।

आस लगाए हर पल रहती आँखें पाँखें परछाईं

पूत सपूत कहा के आऊँ सीखा चलने बापू से।।

काश कभी पथ रुक पाता जिसने बाबुल से दूर किया

चहल पहल रोक रुक जाता रोशन दियने बापू से।।

काँप रही रे गौतम अंगुली जिसे पकड़ तूँ बड़ा हूआ

उसे पकड़ ले जाकर पगले लेकर छवने बापू से।।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ