कविता

दोहरी मानसिकता

कभी कभी कुछ परिस्थितियां
उत्पन्न कर देती है मन में
कई सवाल
जब कोई बन्दिशें रोकती है
हमारे स्वतंत्र इच्छाओं का रास्ता
वो भी ! महज इसलिए कि मैं
एक औरत हूँ
समझना ही पड़ता है खुद से
इस बात को
कोई कहे या न कहे
आज !
समाज की जो बिगड़ी तस्वीर
हमारे सामने है
उससे नकारा नहीं जा सकता
जागती हकीकत है ये
दूभर है आज !
औरतों का जीना
हर मोड़ पर एक खतरा खड़ा
मंडरा रहा
जरूरत है हर एक औरत को
एक पुरुष की
जो पग-पग पर चले साथ हमारे
ताकि कोई अनहोनी घटना
न घट पाए
सच्चाई है ये !
एक पुरुष जिसकी निर्लज्जता
बुरी नजर का बहसीपन से
औरतें डरी सहमी घबराई होती है
वही वह पुरुष !
अपने घर की औरतों के प्रति
सजग प्रहरी बनकर
उसके इज्जत आबरू की
रक्षा को तत्पर तैयार रहता है
अजीब बिडम्बना है ये !
बस एक एहसास रिश्तों का
जो अपने बहन बेटी को
संरक्षण और बेहतर
समाजिक माहौल देता है
तो !
वही दूसरे की बहु-बेटियों को
निर्वस्त्र कर
उसकी इज्जत से खेलकर
उसे लहू-लुहान कर देता है

*बबली सिन्हा

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