बीर छंद आल्हा पर दो मुक्तक
लड़ी लड़ाई गढ़ जीवन में, तनमन भेंट किया सरकार
कभी अधपकी सूखी रोटी, कभी मिला चटका आचार
जितना जतन किया जो पाया, अर्पण किया शुल्क बहुमान
ठगा ठगाया किसने जाना, किसका घर किसका आधार॥-1
खुशी मिली कुछ आज अनोखी, सर-समान कर एक दुकान
एक मुल्क कर एक विधाना, जब इक शुल्की हुआ समान
कहीं खरीदो कहीं बसाओ, हर चौराहा अपना धाम
घूम घूम कर मान बढ़ाओ, मन मर्यादा दौलत जान॥-2
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी