कविता

पूर्णिमा की रात

कितनी शाम गुजर गई
सिर्फ तेरे इंतजार में
नही आये अब तक तुम
इस जिंदगी विरान में
सुबह से शाम,शाम से रात हुई
फिर भी मिलने की आस
दिल मे जगाई रहीं
बुनती रही अपने सपने
अमावस्या की रात में
सपने साकार होंगे पूर्णिमा की रात
यह विश्वास बनायी रहीं
फिर गये पानी
मेरे सभी सपनों पर
तार-तार हुई मेरी ख्वाहिशें
न कोई दिन,न कोई पूर्णिमा की रात
आई मेरी जिंदगी में
बस रात ही रात दिखता चारो तरफ
फिर भी इंतजार की हाथ थामे
काटती गयी समय
यह विश्वास मन मे लेकर कि
एक न एक दिन जरूर आओगें
अमावस्या की रात को
पूर्णिमा की रात बनाने।
निवेदिता चतुर्वेदी’निव्या’

निवेदिता चतुर्वेदी

बी.एसी. शौक ---- लेखन पता --चेनारी ,सासाराम ,रोहतास ,बिहार , ८२११०४