लघुकथा

“छलका, सुनयना का सब्र”

लघुकथा

सुनयना रोज-रोज के खिटखिट से तंग आ चुकी थी, झल्लाकर चीख पड़ी ससुराल के वाहियात ताने सुन- सुनकर। आखिर उसके अंदर भी तो इंसानी दिल है। उसे भी प्यार पुचकार की जरूरत पड़ती है जिसे शायद ही ससुराल में किसी ने महसूस किया हो। कुछ दिन तो मायके से करियावर की आलोचना और माँ-बाप के दिल का छलनीकरण होता रहा और वह मौन होकर कुढ़ती रहीं। फिर काम-काज और सहूर पर प्रतिदिन प्रताड़ना झेलती रहीं, मानों वह इंसानी भेष में एक मशीन सी हो गई है, बटन कोई भी दबे करंट उसी को लगता था जिससे हर पल झंझनाहट उसे ही झेलनी पड़ती थी। क्या खाना और क्या पहनना, कैसे रहना, सब कुछ सासू, जेठानी, जेठ, देवर इत्यादि के विचारों पर निर्भर था। पति सुरेश सबसे छोटा तो था ही, साथ में अभी तक कोई धाड़ नहीं मार पाया था और खेती बारी के काम में जी-जान से लगा था पर पहचान खोटे सिक्के जैसी ही थी। सूखकर काँटा जैसी काया लिए सुनयना एक बहु से बदलकर आया बन गई थी, उसकी पढ़ाई लिखाई, सौंदर्य सब कुछ निष्तेज होकर रह गया।

जीभ को अंदर रखकर दाँतों को हुलसाते रहती थी सुनयना कि एक दिन उसकी आत्मा जाग गई और भीगे आँगन मेँ उसकी जिह्वा बिछला गई। उसकी सास जी ने कहा, चुपचाप काम करती जाओ, पाँचों अँगुली कभी भी बराबर नहीं होती और मेरे जीते जी कभी बराबर होगी भी नहीं। इतना सुनना था कि सुनयना का धीरज टूट गया और दहाड़ पड़ी। धैर्य की कोई सीमा होती है अम्मा जी….. जो आप जैसे लोग नहीं जानते, पर आज मैं बोलूँगी और पूरा घर सुनेगा। सुनिए, हर अँगुली बराबर नहीं होती, सही है बराबर होनी भी नहीं चाहिए, हथेली की सुंदरता बिगड़ जाएगी पर शायद आप को नहीं मालूम है कि हर अँगुली अपने आप में बेजोड़ है। देखिए कनिष्का को देखिए, गिनने की शुरुवात इसी से होती है, अगर यह रूठ गई तो आप की गिनती चौपट हो जाएगी जो आप सुबह-शाम हर्षित हो होकर गिनते- गिनाते रहती है। अनामिका जो आप को बहुत प्यारी है सबके माथे पर टीका ही लगा पाती है, कभी लाल तो कभी काला। मध्यमा जो अपने आप को सबसे शक्तिशाली मानती है वह अकेले तो कुछ नहीं कर पाती, शोभा की गाँठिया है, अनामिका के साथ जुड़ी रहती है और हवि को हवन कुंड में डालने का काम करती है। तर्जनी जो हर वक्त फुदकती रहती है, हँसी आती है उसके कृत्यपर, सबके ऊपर उठती रहती है और किसी को चैन से नहीं रहने देती है। अंगुष्ठा जो हथेली का मुखिया है, अपने आप को शानी समझता है, इज्जत का चिन्ह है, जब भी परेशानी में आता है बाकलम खुर्द कर देता है, किसी भी कागज पर धब्बा लगाकर अपना अस्तित्व खत्म कर लेता है।

मेरी प्यारी अम्मा जी, तनिक होश में आइए, अँगुली का तोड़ना और चटकाना छोड़ दीजिए, यह अशुभ होता है। रोज सुबह उठकर अपनी हथेली में माँ लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा का दर्शन करिए। प्रभु श्रीराम को भजिए और स्वस्थ रहिए, सुनयना, सुनयना ही रहेगी, अपने दायित्व का निर्वहन करना ही तो मेरे माँ-बाप ने जन्म से सिखाया है पर आप ने मुँह खुलवा दिया जो मेरे लिए बहुत कष्टकर है। हाँफते हुए सुरेश आता है और सुनयना को बाहों में भर लेता है, आँखे खुशी से झरने लगती है और काँपते हाथों से एक लिफाफा सुनयना को पकड़ाता है और सुनयना अपनी सासू माँ का पाँव छूते हुए कहती है, अम्मा जी अब मैं कालेज की अध्यापिका, प्रवक्ता बन गई हूँ अपना आशीष दीजिए।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ