धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म क्यों है?

ओ३म्

हमारे शास्त्रकार यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म घोषित करते हैं। इसे जानने का हमें प्रयास करना चाहिये। हम भी अपनी मति के अनुसार आज इस पर विचार कर रहे हैं। यज्ञ और कर्म दो पृथक शब्द हैं जिनके अपने अर्थ हैं। यज्ञ में देव पूजा, संगतिकरण और दान सम्मिलित है। इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य को देव अर्थात् ईश्वर व विद्वानों की पूजा करने के साथ भौतिक पदार्थों अग्नि, वायु, जल आदि के गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उनसे यथायोग्य उपकार लेना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि ऐसा करते हुए हमारा पर्यावरण किंवा यह पृथिवी प्रदुषित न हो और इसमें पदार्थों का सन्तुलन उचित अनुपात में बना रहे तथा किसी प्राणी को किसी प्रकार की हानि न हो। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम कह सकते हैं कि हम देवपूजा कर रहे हैं और इसलिए यह कार्य यज्ञ का अंग माना जा सकता है। देव पूजा में ईश्वर की आज्ञा का पालन करना होता है जिसके लिए मनुष्य को वेदों का ज्ञान आवश्यक है। यदि हम वेदों का स्वाध्याय नहीं करते तो हम देवपूजा अर्थात् चेतन देव ईश्वर के प्रति न्याय नहीं कर सकते और न ही इतर चेतन देव माता, पिता, आचार्य आदि के प्रति भी न्याय कर सकते हैं। माता, पिता, आचार्य, राजा आदि यह सब चेतन देव हैं और इनकी पूजा का अर्थ इनके प्रति सम्मान की भावना रखते हुए इनकी सेवा करना है। इन्हें भोजन, वस्त्र व अपने व्यवहार से सन्तुष्ट रखना है। हमारी सहायता के लिए ऋषि दयानन्द जी ने जहां वेदों का भाष्य किया है, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ लिखे हैं वहीं ईश्वरोपासना के लिए सन्ध्या की विधि भी लिखी हैं जिसे जानकर व साधना करके मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में अग्रसर हो सकते हैं। ज्ञान, स्वाध्याय, साधना आदि का मनुष्य की आत्मा व मन पर सकारात्मक एवं लाभदायक प्रभाव पड़ता है जिससे न केवल उसकी आत्मा का पोषण होता है अपितु उसका शरीर भी स्वस्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी होता है। देवपूजा के विषय में हमने यह संक्षिप्त उल्लेख किया है।

यज्ञ का एक अंग संगतिकरण हैं। देवपूजा और संगतिकरण परस्पर पूरक हैं। मनुष्य जब देवपूजा करता है तो उससे देवों से संगति होती है। वेद, ऋषि, विद्वान, माता, पिता व आचार्य उसे अपने ज्ञान व अनुभव से युक्त व सन्निविष्ट करते हैं। यदि मैं किसी गणित के अध्यापक की संगति करता हूं तो मुझे स्वभाविक रूप से उनसे गणित की चर्चा करने का अवसर मिलेगा। वह विद्वान मेरे ज्ञान व क्षमता के अनुसार मुझसे चर्चा करेंगे जिससे मैं उसे जानकर लाभान्वित होऊंगा और इसके साथ मैं गणित विषयक अपनी सभी शंकाओं का समाधान भी कर सकता हूं। ऐसा ही अन्य विषयों के विद्वानों के साथ भी होगा जिससे मेरी सभी विषयों के ज्ञान में वृद्धि होगी। न केवल भौतिक ज्ञान-विज्ञान अपितु वेद व शास्त्र के निष्णात विद्वानों की संगति से मुझे आध्यात्मिक और सांसारिक सभी प्रकार के लाभ होगें। वर्तमान समय में हमारे सभी विद्वान इसी प्रक्रिया से ज्ञानी बनते हैं। विद्यालय में शिक्षक विद्यार्थियों को जो पाठ पढ़ाता व बताता है वह एक प्रकार का संगतिकरण ही तो है। इसी प्रकार सरकारी विभागों में भी समय समय पर संगतिकरण द्वारा किसी विषय के विशेषज्ञ को किसी विशेष विषय पर व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाता है। विभागीय अधिकारी उनके व्याख्यान से संबंधित अपनी सभी शंकाओं का समाधान करते हैं जिससे उनके ज्ञान में वृद्धि होने से उनका भावी कार्य सरल हो जाता है और वह उसी ज्ञान को दूसरों को देने में समर्थ हो जाते हैं। संगतिकरण की इसी प्रक्रिया से संसार में विद्या की वृद्धि व अविद्या का नाश होकर आज ज्ञान व विज्ञान शिखर पर पहुंच गया है। भावी समय में इसके और विस्तार व वृद्धि की सम्भावना है। इस प्रकार से संगतिकरण मनुष्य की ज्ञान व विज्ञान से संबंधित क्षमताओं में वृद्धि करने में सहायक होता है। हम उन शास्त्रकारों को नमन करते हैं जिन्होंने यज्ञ में देव पूजा और संगतिकरण को सम्मिलित किया था।

यज्ञ का एक अर्थ दान भी है। दान का अर्थ किसी को उपयोगार्थ अपनी कोई वस्तु देना होता है। हम संसार में देख रहे हैं कि जड़ जगत में भी दान का नियम कार्य कर रहा है। सूर्य के पास प्रकाश व ताप है जिसे वह हर क्षण व हर पल पृथिवीवासी सभी प्राणियों को प्रदान कर रहा है। आज तो सौर्य ऊर्जा से विद्युत का उत्पादन भी होने लगा है और विद्युत के द्वारा अनेक कार्य सम्पन्न किये जा रहे हैं। सूर्य की ही तरह से वायु और जल सहित वृक्ष एवं प्रायः ईश्वर के बनाये सभी पदार्थ दान यज्ञ को सम्पादित कर रहे हैं। वायु से हमारे प्राण व जीवन रक्षित होता है। जल से भी हमारा शरीर व जीवन रक्षित होता है। ईश्वर भी वेद ज्ञान का ऋषियों को दान करता है तो मनुष्य बोलना, सोचना, लिखना व पढ़ना सीख पाते हैं। वेद का अध्यायी ज्ञानी व विज्ञानी बन जाता है। यह सब ईश्वर द्वारा वेदों के दान से ही सम्भव हुआ है। माता, पिता, विद्वान व आचार्य आदि भी अपनी सन्तानों, शिष्यों व श्रोताओं आदि को ज्ञान का दान देकर सामान्य मनुष्य से विशिष्ट मनुष्य बनाते हैं जिससे जीवन में सुख व कल्याण की वृद्धि होती है। इसी प्रकार से गृहस्थ मनुष्य भी अपनी सेवा, परिश्रम, धन व पोषण आदि से समाज व अपनी सन्तानों को दान के द्वारा निर्माण करते हैं जिससे वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के साथ सुखी व सम्पन्न जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

देश व समाज में जो भी व्यक्ति अच्छा कार्य कर रहे हों, हमें उनसे सहयोग कर अपनी विद्या, अनुभव को साझा करने के साथ सामान्य पात्र नहीं अपितु सुपात्रों को विद्या व धन का दान अवश्य करना चाहिये। वेदों की रक्षा में दिया गया दान अतीव महत्वपूर्ण होता है। जहां धन का सदुपयोग नहीं होता वहां धन आदि का दान करने से हमें हानि का अनुभव होता है। दान ग्रहण करने वाले व्यक्ति व विद्वान को दानदाता के एक एक पैसे का सदुपयोग करना चाहिये। महर्षि दयानन्द के जीवन को हम आदर्श उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। एक बार महर्षि को रेल यात्रा से कहीं जाना था। उन्होंने जिस व्यक्ति से टिकट मंगवाया वह तेज गति की गाड़ी का महंगा टिकट ले आया। ऋषि ने पूछा कि क्या इससे कम मूल्य का टिकट उपलब्ध नहीं था। उसके हां करने पर ऋषि ने उसे समझाया कि धन का सदुपयोग करने के लिए हमें अधिक व्यय नहीं करना चाहिये अपितु किसी भी कार्य को न्यूनतम व्यय पर करने का प्रयास करना चाहिये। आजकल आर्यसमाजों में भी उतना दान नहीं मिलता जितना ऋषि के जीवन काल व उनकी मृत्यु के बाद प्राप्त हुआ करता था। हमें लगता है कि आर्यसमाज के लोगों ने अपने सदस्यों के दान देने की क्षमता पर विश्वास न करके आर्यसमाज की सम्पत्तियों का विक्रय करना, उसे किराये पर देना, हिसाब किताब में पारदर्शिता आदि का अभाव, गुटबाजी आदि ऐसे कार्य हैं जिससे लोग दान देने से विचलित होते हैं। आर्यसमाज की गुटबाजी और कोर्ट कचहरी में धन का अपव्यय भी आर्यसमाज को बदनाम करता है और सदस्य भी इसका कष्ट अनुभव करते हैं। हम भी यही चाहते हैं कि जिस समाज में कोर्ट कचहरी तक बात चली जाये वहां अपने परिश्रम से अर्जित धन का दान नहीं करना चाहिये। हां, जहां गुणी, त्यागी, ऋषिभक्त, समाज में सुधार की प्रवृत्ति रखने वाले सदस्य व अधिकारी हों, वहां दान देना चाहिये। हमें आर्यसमाज टंकारा इस पर खरा उतरता प्रतीत होता है। वहां हमने विगत तीन वर्षों की प्रगति को सुना है जिससे हमें लगा कि वह आदर्श समाज है। ऋषि भक्त श्री दयालमुनि जी जैसे व्यक्ति इस समाज से जुड़े हैं। यह उस समाज व सम्पूर्ण समाज के लिये गौरव की बात है। यह बता दें कि श्री दयाल मुनि जी ने चारों वेदों के भाष्य का गुजराती भाषा में अनुवाद किया है। सुपात्रों को दान देने से धन बढ़ता है और इससे समाज व राष्ट्र उन्नति को प्राप्त होता है। अतः सभी ऋषि भक्तों को सुपात्रों को दान अवश्य करना चाहिये।

देवयज्ञ अर्थात् अग्निहोत्र को भी यज्ञ, हवन, होम आदि नामों से कहते हैं। यज्ञ के अवसर पर विद्वानों को आमंत्रित करना चाहिये। उनसे उनके ज्ञान व अनुभव सुनने चाहिये। इस संगतिकरण से ज्ञान में वृद्धि का लाभ होता है। अग्निहोत्र यज्ञ में जो घृत व साकल्य की आहुतियां दी जाती हैं वह दान ही है। इससे वायु व जल की शुद्धि का लाभ मिलता है। रोग दूर होते हैं और मनुष्य स्वस्थ रहकर दीर्घायु होता है। यज्ञ के धूम्र से रोगकारक कीटाणुओं का नाश भी होता है। जिन वेदमंत्रों का पाठ किया जाता है उनके अर्थसहित ज्ञान व उसके प्रचार से वेदों की रक्षा होती है। इससे याज्ञिकों की वेदाध्ययन में प्रवृत्ति भी होती है। मनुष्य आस्तिक बनता है। ईश्वर की व्यवस्था में विश्वास करता है। यज्ञ के द्वारा जो सुगन्धित वायु बनती है वह दूर दूर तक जाकर असंख्य प्राणियों को लाभ पहुंचाती हैं। यज्ञ धूम्र के प्रभाव से जो वर्षा होती है उससे उत्पन्न अन्न उत्तम गुणों वाला होता है। उससे मनुष्य के शरीर बलिष्ठ होने से उनके यहां योग्य सन्तान उत्पन्न होती हैं। ऐसा तर्कपूर्ण उपदेश गीता ग्रन्थ में भी पढ़ने को मिलता है। प्रतिदिन प्रातः व सायं देवयज्ञ अग्निहोत्र करना गृहस्थ जीवन जीने वाले मनुष्यों का परम धर्म है। जो इस परमधर्म का पालन करेगा वह यज्ञ से होने वाले लाभों से लाभान्वित होगा अन्यथा वंचित होगा।

हमने यज्ञ के महत्व पर अपने कुछ संक्षिप्त विचार व्यक्त किये हैं। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य