गीत/नवगीत

जिंदगी चार दिन की ( गीत )

जिंदगी चार दिन की है
ना यूँ इतराओ तुम
खुशी से जी लो हर पल को
खुशी से गाओ तुम ……
तेरा मेरा क्यों करना
यहां तेरा है न मेरा
अंत समय सब छूट जाएगा
कुछ दिन का ये बसेरा
जितना भी हो सके प्रेम के
नगमे नित ही गाओ तुम
जिंदगी चार दिन की है
ना यूँ इतराओ तुम ……..
 खुशी से जी लो …..
धन दौलत पाकर क्या करना
प्रेम किसी का पाओ
रहो भले ना याद रहो तुम
ऐसा कुछ कर जाओ
नफरत घटे प्रेम की बारिश
जग में यूं कर जाओ तुम
जिंदगी चार दिन की है
ना यूँ इतराओ तुम …
खुशी से जी लो ….
तेरा कोई सगा नहीं सब ,
मतलब के हैं रिश्ते
जब तक जिसको जितनी जरूरत
उतना ही हैं घिसते
मतलब के रिश्तों के लिए ना
अपनी चैन गंवाओ तुम …
जिंदगी चार दिन की है
ना यूँ इतराओ तुम …

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

2 thoughts on “जिंदगी चार दिन की ( गीत )

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, बहुत सुंदर गीत. सचमुच जिंदगी चार दिन की है, प्रेम से जियो. अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.

  • मनमोहन कुमार आर्य

    सुन्दर रचना। वेदों में कहा गया है मनुष्य संसार में पुण्य कर्म करने आता है जिससे उसे सुख मिलता है और मरने के बाद पुनः मनुष्य का श्रेष्ठ जीवन। मनुष्य यदि वैराग्य को धारण कर वेदों के अनुरूप ईश्वर भक्ति और श्रेष्ठ कर्म करता है तो वह ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है जिससे उसे जन्म मरण के दुखों से मुक्ति मिलती है और वह मोक्ष में चला जाता है। सत्यार्थ प्रकाश के नवम सम्मुलास में मुक्ति वा मोक्ष का वर्णन है। सादर।

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