भाषा-साहित्य

नीरज जी की कमी समाज और साहित्य जगत को हमेशा खलेगी

राजनीति जिस प्रदेश के रग-रग में समाहित है। संस्कृति और सभ्यता का वाहक जो प्रदेश रहा है। गंगा, यमुना और सरस्वती जहां पर संगम का निर्माण करती है। उस प्रदेश की धरा को अपने जन्म से अभिभूत किया गोपालदास नीरज जी ने। आज के दौर की सामाजिक व्यवस्था जिस हिसाब से मज़हबी बेड़ियों में उलझती जा रही। सत्ता के सियासतदां जिस हिसाब से अपनी राजनीतिक दुकानदारी चलाने के लिए आएं दिन देश के लोगों को मज़हबी और साम्प्रदायिक सांचों में ढालना चाह रहे। उससे छुटकारा दिलाने के लिए नीरज जी ने एक सटीक गीत लिखा था। जिस पर आज की व्यवस्था को अमल करना चाहिए। उनके इस गीत की कुछ चंद पंक्तियां थी। जो काफी पहले उन्होंने लिखी थी। पर आज के बदलते दौर में उस पर निगहबानी करना बेहद ज़रूरी हो जाता है। अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए, जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए… इन पंक्तियों को सुनकर यह कह सकते हैं कि शायद गोपालदास जी को आज के वक़्त का भान पहले ही सहज रूप से हो गया था। गोपालदास जी गीतकार और कवि तो थे, ही उन्होंने राजनीतिक जीवन भी जीने का प्रयत्न भी किया। या यूं कहें राजनीति में कदम रखकर भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति को सही दिशा देने की कोशिश की। नहीं तो कौन सियासतदां है आज के जमाने में, जो चुनावी समर में निर्दलीय उतरे। उसके बाद यह कह दे जनता से, कि आप अपना मत उसे ही देना जो आपको ईमानदार लगें। क्या आज के राजनीतिक परिपाटी में ऐसा कहने वाला कोई है। आज तो मततंत्र ने लोकतंत्र पर ही कब्जा कर लिया है।

अब प्रख्यात कवि, गीतकार नीरज जी की आत्मा शून्य में विलीन हो गई है। फ़िर भी उनकी यादें उनके गीतों और गज़लों के माध्यम से इस नश्वर समाज में अमरता को प्राप्त हो चुकी है। जब भी कहीं उनके गीत और कविता को गुनगुनाया जाएगा। बड़ी तहज़ीब से उनका नाम भी सभी के लबों पर होगा। वैसे नीरज जी का पूरा नाम गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ था। आज हम अगर ‘नीरज’ शब्द का महिमामंडन करना चाहे, तो हमारे पास शब्दों का संसार छोटा पड़ सकता है। पर उनका व्यक्तित्व और उनके द्वारा दी गई अद्भुत संगीत और काव्य के क्षेत्र की विरासत का बखान पूर्णरूप से नही किया जा सकता। फिर भी नीरज होने का अर्थ आध्यात्म और सौंदर्य का अमिट और अद्भुत मिलन होना है। प्रेम-पराग की पराकाष्ठा और सौन्दर्यबोध का एक अनोखा जादूगर जिसने अपनी कविताओं में आम बोलचाल की भाषा को ऐसे पिरोया जैसे किसी माला में मोती को पिरोया गया हो। गीत की गहराई और प्रीत की तड़प में आध्यात्म की तलाश । गीतों का दरवेश और प्रेम का सौन्दर्य उपासक। मौन का मुखर सौन्दर्य और शोखियों की अल्हड़ता का दीदार। रोमांटिज्म और रूमानियत का मिलन। ये शब्द कम है, नीरज होने का अर्थ परिभाषित करने के लिए। पर इससे अधिक एक अदना सा व्यक्ति साहित्य और संगीत जगत के पुरोधा के बारे में लिख भी नहीं सकता।

लंबी उम्र, और ख्याति के उच्च शिखर पर सवार होकर वे हम सब के बीच से अब चले गए हैं। तो अगर बात उनके साहित्य और समाज को दिए गए योगदान की करें, तो उन्होंने अपनी लेखनी से समाज की काफ़ी सेवा की। जिसका ऋण यह समाज कभी चुकता नहीं कर सकता। उनके हर शब्दों में सजीवता के अनुभव होते हैं। उनके गीत और कविताएं समाज को नई दिशा और दशा देने वाली रहीं हैं, साथ में उनकी कृतियों में ऐसे भाव परिलक्षित होते हैं। जो समाज को उन्मुखीकरण की तरफ़ ले जाते हैं। गोपालदास जी ने एक गीत लिखा था, इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगा सदियों आपको हमें भुलाने में। उनके इस गीत का भावार्थ अब सहज रूप से इस नाशवान संसार से उनके जाने के बाद ज़ेहन में कौंध रहा है। नीरज जी ने अपनी रचनाओं से समाज को एक नए तरीक़े की सोच ही नहीं दिया, बल्कि उनके गीत, ग़ज़ल और आधुनिक कविता का संसार सदियों तक इस धरा में सजीव रहेगा, और समाज को कुछ न कुछ संदेश देता रहेगा। नीरज जी ने जिस तरीक़े के शब्दों को अपनी रचनाओं में पिरोया, उसने उन्हें आम आदमी का कवि कहलाने का हक प्रदान किया। नीरज जी की धूम मंच से लेकर सिनेमा तक अमिट रहीं। उन्होंने अपने रचना संसार में ऐसे शब्दों को सुनियोजित और निवेशित किया, जो उन्हें अन्य कवियों से अलग बनाता है। उनकी कविता में अगर लोगों को उत्साहित करने का भाव रहा, तो कहीं न कही जीवन के आखिर समय में उनकी रचनाओं में वेदना के स्वर भी सुनाई देते हैं। इसके अलावा उनकी रचनाओं में आम आदमी की इच्छाओं, अपेक्षाओं का ताना-बाना ही नहीं बुना हुआ मिलता है। अपितु सुनहरे संसार को शब्दों में बांधने का कार्य भी उन्होंने किया।

नीरज जी के सिर पर दुखों का साया बचपन से ही छाया रहा। तमाम तरीक़े के संघर्षों से नाता जुड़ा रहा। फ़िर भी इससे तनिक भी न गोपालदास जी घबराए, और न ही इसका असर अपनी रचनाओं पर आने दिया। अगर बात गोपालदास जी के जन्म की की जाएं, तो उनका जन्म 1925 में इटावा के पुरावली गांव में हुआ था। बाल्यावस्था से ही उनका दुखों से नाता जुड़ गया। छः वर्ष की उम्र में ही उनके सिर से पिता का साया छूट गया था। बचपन में ही पिता का साथ छूटने के बाद दुश्वारियों ने उनके चारों तरफ़ आभामंडल बना लिया। ऐसे में इससे निपटने के लिए और घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए गोपालदास जी ने गांव के क़रीब बहने वाली गंगा नदी में श्रद्धालुओं द्वारा फेंके जाने वाले सिक्कों को बीनकर घर की स्थिति सुधारने की कोशिश की। उनका यह संघर्ष लगातार उनकी पढ़ाई के दरमियान भी चलता रहा। वे अपने अध्ययन जीवन के साथ कचहरी में टाइपिंग का कार्य भी करते रहें। सच पूछा जाए, तो उनकी कविता में अगर सौंदर्य की सौंधी खुशबू मिलेगी, तो जन संवेदना की मुखर आवाज़ के गीत भी सुनने को मिलेंगे। सत्तर के दशक में हिंदी फिल्मी गीतों से नीरज जी ने बॉलीबुड को एक नई ऊँचाई दी। ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ..आदमी हूँ आदमी की बात करता हूँ।’ इस अपराध को समाज ने महसूस किया और अपनी जुबां में उनके तराने फिजाओं में गुँजने लगें। कभी गीतकार तो कभी शायर के रूप में नीरज ने समाज को जुबां दिया। ‘कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहें’ का अजीम फ़नकार नीरज ने सिनेमा से साहित्य तक समाज को नये सरोकार और मायने दिए।

इसके अलावा उन्होंने दिलों के दर्द को जुबां दिया और आने वाली पीढ़ियों को मुहब्बत के तराने दिए। जिसकी बदौलत ही लोकप्रियता के हर पैमाने पर समाज के लोगों ने उन्हें सर्वोपरि स्थान दिया। इसके अलावा रहनुमाई संस्थाओं ने भी उन्हें पद्यभूषण, पद्यश्री और यशभारती जैसे सम्मान दिए। तो वहीं तीन बार फ़िल्म फ़ेयर पुरुस्कार के विजेता भी गोपालदास जी रहें। गोपालदास जी की कविताएं, ग़ज़ल और गीत अगर उनके समकालीन या उनके बाद के लेखकों और कवियों के लिए मार्गदर्शक का काम करती हैं। तो आज के नवांकुरित हो रहे साहित्य के पौधों के लिए गुरुज्ञान से कम नहीं। जिसे पढ़कर और अमल करके साहित्य और संगीत की दुनिया में बड़ा नाम अर्जित किया जा सकता है। ऐसा मैंने इसलिए कहा, क्योंकि जब हिंदी का प्रख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर गोपालदास जी को हिंदी का वीणा कह सकता है। तो मेरे द्वारा उनके बारे में दो-चार पंक्तियां उपमा देना उनके पूर्ण व्यक्तित्व को तो नहीं दर्शा सकता हैं। पर उनके जीवन की झलकी अवश्य व्यक्त कर सकती है। गोपालदास जी ने कुछ पंक्तियां लिखी थी। जो इस प्रकार है- ‘जितना कम सामान रहेगा, उतना सफ़र आसान रहेगा, जितनी भारी गठरी होगी, उतना तू हैरान रहेगा’ जी हां, गोपालदास नीरज ने ये शब्द बस अपनी रचनाओं में पिरोए ही नहीं बल्कि उन्हें जीवन में उतारा भी। ऐसा करने वाले वे देश ही नहीं दुनिया के इकलौते और अनूठे साहित्यकार और संगीतकार होंगे। अपने कविताओं और गीतों से देश और समाज को एक नया विचार और सशक्त सन्देश देने वाले नीरज जी ने इस नश्वर दुनिया से जाते-जाते दिखा दिया कि उनके शरीर पर समाज का भी अधिकार है । नीरज जी ने अपने अंगदान की बात करके यह साबित किया, कि जो वे लिखते थे, उसी को अपने जीवन में ढालते भी थे।

इसके अलावा अगर देखा जाएं, तो उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक सभी तरीक़े की बुराइयों से समाज को निजात दिलाने के लिए अपनी कलम से हस्तक्षेप किया।
काफी पहले उन्होंने एक गीत लिखा था- ‘अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए, जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए…’कह सकते हैं कि ये गीत शायद जब वे लिख रहे होंगे, तो आज के दौर की सामाजिक सम्भवना को उन्होंने महसूस की होगी। जब आज के दौर में भाई, भाई का नहीं हो रहा। तो नफरत के इस दौर में उनका यह गीत काफी दुरुस्त बैठता है और समाज के लोगों को सोचने पर विवश करता है, कि आपसी टकराव आदि में कुछ नहीं रखा है। अब थोड़ी चर्चा यह होनी चाहिए, कि क्या आज हमारे समाज से नीरज जैसा साहित्यिक पुष्प खिल रहें हैं। तो उत्तर हां में मिलना मुश्किल है। आज हमारे समाज की युवा पीढ़ी भी साहित्य से दूर कहीं सोशल मीडिया के अड्डे पर बैठ गई है। उसको साहित्य की तरफ़ आकर्षित करना होगा। तभी गोपालदास जी के जाने के बाद रिक्त हुए साहित्य जगत का स्थान भरा जा सकता है।

आखिर में अपनी बात को विराम की तरफ़ ले जाते हुए अगर गोपालदास जी के फ़िल्मी दुनिया तक पहुँचने की बात की जाएं। तो वह भी एक आकस्मिक घटना थी। एक दिन वे अपने मशहूर गीत ‘कारवां गुजर गया…’ को लखनऊ रेडियो पर सुना रहें थे। इस गीत के बाद ही उन्हें बॉलीवुड से बुलावा आया था। आखिर में बस इतना ही कि, पैदा होने के बाद इंसान को जिन दुनियावी अहसासों-झंझावातों, खुशी या दुख के अहसासों से गुजरना पड़ता है, उससे उठे संवेदनाओं के झोंकों को कई बार वह शब्द देना चाहता है, अपने आसपास से बांटना चाहता है। ऐसे में अक्सर कुछ कविताएं, कुछ गीत उसके साथ हो जाते हैं और भावनात्मक उथल-पुथल का सहारा बनते हैं। नीरज जी ऐसे हर मौके पर अपने शब्दों के साथ खड़े मिले। दुनिया की मजहबी दीवारों से परे समाज में साझी विरासत और गंगा-जमुनी तहजीब को बचाए रखने की अपील करने वाले इंसानियत और संवेदनाओं के कवि और गीतकार नीरज की कमी समाज और साहित्य जगत को हमेशा खलेगी। बस अंत में बस इतना ही –
“स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे”

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896