हास्य व्यंग्य

गरीब खुश हुआ ,शाबासी देगा

गरीब तब भी खुश था जब कहा गया था कि दिल्ली से एक रूपया चलता है और गरीब तक पन्द्रह पैसे ही पहुँचते हैं।गरीब तब भी खुश हुआ था,शाबासी दी थी।गरीब आज भी खुश है जब कहा जा रहा है कि दिल्ली से एक रूपया चलता है और गरीब तक सौ पैसे पहुँच रहे हैं।वह आज भी खुश हुआ है और शाबाशी दे रहा है। क्योंकि उसकी यही खुशकिस्मती है कि रूपया उसके लिए चल कर आ रहा है कितना निकला है और कितना पहुँचा है इसका टेंशन वह पाल भी नहीं रहा है।पहले भी नहीं पाला,आगे भी नहीं पालेगा।गरीब जानता है कि उसे कोई हिसाब नहीं लगाना है।क्योंकि उसके हिसाब लगाने से होना भी क्या है।पहले भी जो कहा गया, वह भी सच ही रहा होगा और आज भी जो कहा जा रहा है उसे भी सच तो मानना ही पड़ेगा।आखिर वह इन बातों को झूठा कैसे साबित कर सकता है।
गरीब और गरीबी के मसीहा तो चहुंओर हैं।जो सरकार में हों वे भी और जो विरोध में हों वे भी! क्योंकि गरीबी शाश्वत है और गरीब भी शाश्वत है और इन्हें बनाए रखने वाले भी। ये दोनों अन्योन्याश्रित जो ठहरे।आदमी पैसे से अमीर हो भी जाए तब भी उसके साथ गरीबी जुड़ी रहना लाजमी है।उसे दिल से गरीब होना ही पड़ता है।इसीलिये जब जेब से खर्च करने की बात आएगी तो आदमी को अपने दिल की गरीबी का ख्याल आ जाता है और जब किसी ओर के पैसे खरचना हो तो दिल दरिया हो जाता है तब तो रूपये पैसे को दरिया की तरह बहाया जा सकता है।सरकारी खजाना भी कुछ इसी तरह का दरिया है जिसे उसके काबिजदार दरिया की तरह बहा देते हैं।हाँ, इस खजाने के साथ बपौती की बात इसलिए नहीं जोड़ी जा सकती क्योंकि बपौती का धन ऐसे नहीं बहाया जाता।
बहरहाल,पैसा तो अपनी गति से अपनी सही जगह पहुँच ही जाता है।यह तो दरिया के पानी जैसा है,जहाँ जगह मिली अपनी जगह बना ही लेता है।बहते पानी को भला कोई रोक सका है आजतक!
वैसे भी गरीब आदमी को इस बात से कोई सरोकार भी नहीं कि ऊपर से कितना पैसा चला और कितना उस तक पहुँचा।क्योंकि जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था मानसून पर निर्भर करती है ठीक उसी तरह से गरीब का चूल्हा दिल्ली और उसके जैसी अन्य दरियाओं से बहने वाले रूपये पर निर्भर करता है।रूपया बहेगा तो चूल्हा जलेगा।पानी भी ऊपर से नीचे की ओर बहता है तो दूसरी ओर रूपया भी ऊपर से नीचे की ओर ही आता है।कुछ पानी भूखी प्यासी जमीन सोख लेती है तो कुछ हवा संग उड़ जाता है ऐसा ही कुछ रूपये के साथ भी है।कुछ रूपया बड़े पेट वाले भूखे प्यासे लोग डकार लेते है और कुछ हवा में लहराता रहता है,ठीक बिन बरसे मानसूनी बादलों की तरह!जब रूपया गरीब के पास पहुँचता है तो वह उसके अन्नदाता के नाम का चढ़ावा अलग से रखता ही है।वैसै भी गरीब के हिसाब में तो सौ पैसे ही लिखे जायेंगे न।जिसके नाम का पैसा उसी के खाते में ही तो चढ़ेगा!भेंट पूजा,चढ़ावा कभी अलग से तो दर्शाया भी नहीं जाता है।वह उसी के खाते में लिखा जाएगा तब भी वह खुश है।कम से कम रूपया उसके लिए चलकर आ तो रहा है,उसका बहाव अवरुद्ध तो नहीं हुआ है।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009