एक आशा
मुझे जीना है तब तक
जब तक अपने बाग को
संवार न लूं ।
सींचकर अपने अंतहीन
व्यथाओं की निर्झर झरने से,
उसमें जीवटता का
रस न भर दूं ।
एक मासूम कली
जो खिलकर मुस्कराने
के लिए है बेताब ।
खिले और आने वाले
हर तूफान व तपिश को,
सहने की शक्ति जगा ले
अपने भीतर ।
देखे सृष्टि के सुंदरतम
रचनाओं के अद्भूत ,
मनोरम दृश्य को –
और प्रफूल्लित हो
खिल उठे उसका सुन्दर चेहरा ।
मुझे जीना है-
तोड़ने के लिए उस जंजीर को
जिसमें समाज ने नारी को
संस्कार व रीति-रिवाजों को
कुरीति बनाकर ,
एक खूंटे से बांधने का
निरंतर प्रयास करता आ रहा है ।
मुझे जीना है
उस मिथ्या को
सच कर दिखाने के लिए,
जो समाज कहता आ रहा है…
नारी… तुम अबला हो ,
तुम्हारी दुनिया चार दीवारों में है ।
तुम्हारी कार्य सीमा तय है ,
उस सीमा के आगे
तोड़कर दीवार ,
निकलने की शक्ति नहीं है तुममें ।
तुम केवल एक
बेटी, पत्नी, बहन, और मां हो ।
इससे अधिक तुम्हारा
नहीं है कोई अस्तित्व ।
मुझे जीना है
प्रयास करते हुए कि.….
नारी को मिले एक खुला आकाश,
अंतिम सांस तक
इस आशा के साथ…
मेरे पीछे चल पड़े
दो कदम और…..।
मिले जाएगा मेरे
जीने का अर्थ,
धन्य होगा ये मानव जीवन मेरा ।
— ज्योत्स्ना पाॅल