सुकून
मुद्दत बाद तब्बसुम को एक घर-परिवार ऐसा मिला था, जहां उसके चेहरे पर पुनः तब्बसुम झिलमिलाई थी. फुरसत मिलते ही उसके सुकून के पल फिर यादों के मंडवे तले सिहरने लगे. कितने कष्टमय थे वे यादों के पल!
तब्बसुम का जन्म एक अच्छे खाते-पीते घर में हुआ था. ईद पर अच्छी ईदी और मेले-ठेलों के साथ वह बड़ी हुई थी, पर यह मेला-ठेला ही उसके लिए मुसीबत बन गया था. ऐसे ही एक मेले में वह अपहृत कर ली गई थी. वह नहीं खोई थी, उसके माता-पिता खो गए थे. फिर अनेक अनचाहे पड़ावों से उसे गुजरना पड़ा था.
उस दिन भी उसे सजा-संवारकर एक घर के जंग लगे दरवाजे वाले कमरे तक पहुंचाया गया था. गाड़ी में हमेशा की तरह उस दिन भी उसकी आंखों पर पट्टी बांधी गई थी, ताकि रास्ते की पहचान न होने पाए. शायद उसकी किस्मत अच्छी थी, कि पट्टी ढीली होने के कारण उसने अंदाजा लगा लिया था, कि यह वही जाना-पहचाना इलाका है, जहां बचपन में एक जज साहब के यहां वह उनके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम करती थी.
गाड़ी उसे छोड़कर जा चुकी थी. उसने देखा कमरे पर प्रतीक्षा करने की तख्ती लगी हुई थी. डरी हुई तो वह थी ही, लेकिन दरवाजे के चाबी के झीने सुराख से उसे जो दिखाई दिया, वह एकदम सन्न कर देने वाला था. एक छोटी बच्ची की पॉर्न फिल्म बनाई जा रही थी. अश्लील हरकतों के साथ अश्लील शब्दों की आवाजें आ रही थीं और बच्ची को हंसने को विवश किया जा रहा था.
तब्बसुम से और नहीं देखा गया. साहस जुटाकर वह वहां से भागने में सफल हो गई और दौड़ती हुई जज साहब के घर में दाखिल हो गई. पहरेदारों ने रोकने की कोशिश की. हाँफते हुए वह इतना ही बोल पाई थी, कि मेरा परिचय बाद में लेना, पहले जज साहब को बोलो, कि उस छोटी-बच्ची को बचा लें. वह मर जाएगी.
उसकी युक्ति काम कर गई थी. बच्ची को भी बचा लिया गया था, तब्बसुम को भी घर भेजने की तैयारी हो गई थी, पर उसके माता-पिता तो शहर छोड़कर जा चुके थे, सो जज साहब ने ही उसको अपनी बेटी बना लिया था.
सुकून के हर पल के मृदुल अहसास को अपना साथी बनाने के लिए उसने अपनी घुंघराली जुल्फों के साथ कड़वी यादों के दरीचे को झटक दिया था.
कष्टमय यादों के पलों में भी जो सुकून महसूस करते हैं,
वे ही तबस्सुम की तरह साहस जुटाकर अपनी तबस्सुम को कायम रहने देते हैं.