कविता

दामिनी- एक प्रयास

” दामिनी-एक प्रयत्न”

दमकता हुआ वह चेहरा
छरहरी काया, कर साज श्रृंगार,
आई होली का चंदा लेने
एकदिन ‘दामिनी’ मेरे द्वार ।

तीखे नैन नक्श की धनी
थी बहुत ही सुंदर व गोरी,
संभ्रांत घर की लगती थी
थी मन की भोली, बांकी छोरी।

मुस्कुराए तो गुलाब झरे
थी बड़ी मनमोहक अदा,
मन की पीड़ा झलकती थी
उजली हंसी के बीच सदा।

कुछ महीनों के जान पहचान में
बन गई थी मेरी अच्छी मीत,
बात बात में खोल दिया एक दिन
सामने मेरे, अपने जीवन का अतीत।

माता पिता के संग अपने घर में
बहुत खुश था उसका बचपन,
जब बड़ी हुई तो नित नित
माता पिता से होने लगी अनबन।

स्कूल छोड़ा, चिढ़ाते थे सभी
कहकर, तू लड़का है या लड़की,
हंसी उड़ाते कुछ शिक्षक भी
मिलती थी बात बात में झिड़की।

रोते रोते घर आ जाती तो
माता-पिता से नहीं मिलती सांत्वना,
सोते -जागते रात- दिन वे भी
बात -बात पर देते उलाहना।

तेरे कारण नाक कट गई हमारी
उठना बैठना समाज में हुआ दूभर,
ताने मारे भाई , बंधु सब हमें
जाए तो हम अब जाए किधर।

जन्मदाता माता पिता ना समझे
उसके हृदय की अव्यक्त वेदना,
किस बात का दंड मिल रहा मुझे
प्रश्न करती उससे, उसकी चेतना।

ईश्वर ने किया अन्याय मेरे साथ
जन्म पर मेरा नहीं कोई वश,
मां ने दिया जन्म मुझे फिर
क्यों सहूं मैं असह्य पीड़ा का दंश?

मिले ईश्वर तो पूछूं उनसे
मुझसे क्यों किया यह छल,
मेरे भाग्य को रचने वाले तुम
क्यों भर दिए मेरे नैनों में अश्रु जल।

क्या दोष है उस बच्चे का
ऊंच-नीच का जिसे होता नहीं ज्ञान,
ना जाने भेद स्त्री – पुरुष का
ना जाने क्या होता है मान-सम्मान।

समाज स्वयं सिखा देता है
जाति, धर्म का भेदभाव करना,
शैशव मन तो कोरा कागज सा
हाथ में समाज के, उस में रंग भरना।

भावना का मूल्य नहीं जग में
मूल्यवान है केवल झूठी शान,
आशा करें क्या दूसरों से
जब अपने करें, अपनों का अपमान।

एकदिन छोड़ दिया घर दामिनी ने
सह ना सकी अपनों की यातना,
दूसरों से ना थी आशा कोई उसे
ना की कभी ईश्वर से याचना।

भटकते भटकते एक दिन वह
पहुंची कमलाबाई के द्वार,
समझ पाई वो व्यथा दामिनी की
दिया उसे बेटी जैसा प्यार।

चूभने की व्यथा वही समझे
चूभा हो जिसके पग में भी कांटा,
लेकर व्यथा उसके हृदय की
खुशी का उपहार उसे है बांटा।

धन हम बांट नहीं सकते तो
बांट तो सकते हैं दो मीठे बोल,
कष्ट नहीं उठाना पड़ता है इसमें
मीठे बोल है जग में अनमोल।

मिलना चाहिए समान अधिकार
इन्हें, राष्ट्र के प्रत्येक कार्य में,
लिया इस धरा पर जन्म तो
सम्मिलित है भारतीय नागरिक में।

जोड़े इन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से
जीविकोपार्जन का मिले अवसर,
द्वार- द्वार आकर मांगे ना भीक्षा
ना मिले किसी का अपमान व दुत्कार।

मानव होकर भी क्यों विवश है
जीने को एक अभिशप्त जीवन,
क्यों विमुख है समाज इन से
शासन क्यों है इनके प्रति उदासीन।

दें इन्हें अपने स्नेह की छाया
समाज से है मेरी प्रार्थना,
माता पिता न त्यागे ऐसी संतान
करें कठिनाई का डटकर सामना।

हृदय भावना का मोल हो जग में
अनमोल नहीं होता यह तन,
विचार अनमोल होते हैं मनुज के
काया को मिलना है माटी में एक दिन।

दामिनियां दमकेंगी आकाश में
मिल जाए उन्हें भी मानवाधिकार,
फैलेगी चमक चहु दिशा में
मिले जीने का उन्हें सुअवसर।

पूर्णतः मौलिक- ज्योत्सना पॉल

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com