धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गुरु नानक एवं गुरुपर्व

(गुरुपर्व पर विशेष रूप से प्रकाशित)

आज गुरु नानक जी स्मृति में गुरुपर्व बनाया जाता है। हर साल की भांति सिख समाज गुरु पर्व पर गुरुद्वारा जाते हैं, शब्द कीर्तन करते हैं, लंगर छकते हैं, नगर कीर्तन निकालते हैं। चारों तरफ हर्ष और उल्लास का माहौल होता हैं।

एक जिज्ञासु के मन में प्रश्न आया कि हम सिख गुरु पर्व क्यूँ बनाते है?

एक विद्वान ने उत्तर दिया की गुरु नानक और अन्य गुरु साहिबान ने अपने उपदेशों के द्वारा हमारा जो उपकार किया है, हम उनके सम्मान के प्रतीक रूप में उन्हें स्मरण करने के लिए उनका पर्व बनाते है।

जिज्ञासु ने पुछा इसका अर्थ यह हुआ की क्या हम गुरुपर्व पर उनके उपदेशों को स्मरण कर उन्हें अपने जीवन में उतारे तभी उनका पर्व बनाना हमारे लिए यथार्थ होगा।

विद्वान ने उत्तर दिया आपका आशय बिलकुल सही है। किसी भी महापुरुष के जीवन से, उनके उपदेशों से प्रेरणा लेना ही उसके प्रति सही सम्मान दिखाना है।

जिज्ञासु ने कहा गुरु नानक जी महाराज के उपदेशों से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

विद्वान ने कुछ गंभीर होते हुए कहाँ कि मुख्य रूप से तो गुरु नानक जी महाराज एवं अन्य सिख गुरुओं का उद्देश्य हिन्दू समाज में समय के साथ जो बुराइयाँ आ गई थी। उनको दूर करना था। उसे मतान्ध इस्लामिक आक्रमण का सामना करने के लिए संगठित करना था। जहाँ एक ओर गुरु नानक ने अपने उपदेशों से सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जन चेतना का प्रचार किया वही दूसरी ओर गुरु गोविन्द सिंह ने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए हिन्दू जाति में क्षत्रिय धर्म का प्रचार किया।

गुरु साहिबान के मुख्य उपदेश इस प्रकार हैं:-

1. हिन्दू समाज से छुआछुत अर्थात जातिवाद का नाश होना चाहिए।

2. मूर्ति पूजा आदि अन्धविश्वास एवं धर्म के नाम पर पाखंड का नाश होना चाहिए।

3. धुम्रपान, मासांहार आदि नशों से सभी को दूर रहना चाहिए।

4. देश, जाति और धर्म पर आने वाले संकटों का सभी संगठित होकर मुकाबला करे।

गुरु नानक के काल में हिन्दू समाज की शक्ति छुआछुत की वीभत्स प्रथा से टुकड़े टुकड़े होकर अत्यंत क्षीण हो गयी थी। जिसके कारण कोई भी विदेशी आक्रमंता हम पर आसानी से आक्रमण कर हिन्दुओं को प्रताड़ित करता था। सिख गुरुओं ने इस बीमारी को मिटाने के लिए प्रचण्ड प्रयास आरम्भ किया। ध्यान दीजिये गुरु गोविन्द सिंह के पञ्च प्यारों में तो सवर्णों के साथ साथ शुद्र वर्ण के भी लोग शामिल थे। हिन्दू समाज की इस बुराई पर विजय पाने से ही वह संगठित हो सकता था। गुरु कि खालसा फौज में सभी वर्णों के लोग एक साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर शत्रु से संघर्ष करते थे। एक साथ बैठकर भोजन करते थे। खालसा की यही एकता उनकी अपने से कही ज्यादा ताकतवर शत्रु पर विजय का कारण थी। विडंबना यह है कि आज का सिख समाज फिर से उसी बुराई से लिप्त हो गया है। हिन्दू समाज के समान सिख समाज में भी सवर्ण और मजहबी अर्थात दलित सिख , रविदासिया सिख आदि जैसे अनेक मत उत्पन्न हो गए जिनके गुरुद्वारा, जिनके ग्रंथी, जिनके शमशान घाट सब अलग अलग हैं। कहने को वे सभी सिख है अर्थात गुरुओं के शिष्य है मगर उनमें रोटी बेटी का किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। जब सभी सिख एक ओमकार ईश्वर को मानते है, दस गुरु साहिबान के उपदेश और एक ही गुरु ग्रन्थ साहिब को मानते है तो फिर जातिवाद के लिए उनमें भेदभाव होना अत्यंत शर्मनाक बात है। इसी जातिवाद के चलते पंजाब में अनेक स्थानों पर मजहबी सिख ईसाई बनकर चर्च की शोभा बड़ा रहे है। वे हमारे ही भाई थे जोकि हमसे बिछुड़ कर हमसे दूर चले गए। आज उन्हें वापस अपने साथ मिलाने की आवश्यकता है और यह तभी हो सकता है,जब हम गुरु साहिबान का उपदेश मानेगे अर्थात छुआछुत नाम की इस बीमारी को जड़ से मिटा देगे।

अन्धविश्वास, धर्म के नाम पर ढोंग और आडम्बर ,व्यर्थ के प्रलापों आदि में पड़कर हिन्दू समाज न केवल अपनी अध्यात्मिक उन्नति को खो चूका था। अपितु इन कार्यों को करने में उसका सारा सामर्थ्य, उसके सारे संसाधन व्यय हो जाते थे। अगर सोमनाथ के मंदिर में टनों सोने को एकत्र करने के स्थान पर, उस धन को क्षात्र शक्ति को बढ़ाने में व्यय करते। तो न केवल उससे आक्रमणकारियों का विनाश कर देते, बल्कि हिन्दू जाति का इतिहास भी कलंकित होने से बच जाता। अगर वीर शिवाजी को अपने आपको क्षत्रिय घोषित करने में उस समय के लगभग पञ्च करोड़ को खर्च न पड़ता तो उस धन से मुगलों से संघर्ष करने में लगता।

सिख गुरु साहिबान ने हिन्दुओं की इस कमजोरी को पहचान लिया था। इसलिए उन्होंने व्यर्थ के अंधविश्वास पाखंड से मुक्ति दिलाकर देश जाति और धर्म की रक्षा के लिए तप करने का उपदेश दिया था। खेदजनक बात यह है कि आज पुन: सिख संगत फिर से उसी राह पर चल पड़ी हैं।

दिवंगत सिख लेखक डॉ महीप सिंह के अनुसार गुरुद्वारा में जाकर केवल गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे शीश नवाने से कुछ भी नहीं होगा। जब तक गुरु साहिबान की शिक्षा को जीवन में नहीं उतारा जायेगा। तब तक शीश नवाना केवल मूर्ति पूजा के सामान अन्धविश्वास है। आज सिख समाजहिन्दुओं की भांति गुरुद्वारों पर सोने की परत चढाने , हर वर्ष मार्बल लगाने जैसे कार्यों में ही सबसे ज्यादा धन का व्यय कर रहा हैं। जबकि देश के लिए सिख नौजवानों को सिख गुरुओं की भांति तैयार करना उसका मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।

गुरु साहिबान ने स्पष्ट रूप से धुम्रपान, मांसाहार आदि के लिए मना किया है। जिसका अर्थ हैं की शराब, अफीम, चरस, सुल्फा, बुखी आदि तमाम नशे का निषेध है। क्यूंकि नशे से न केवल शरीर खोखला हो जाता है। बल्कि उसके साथ साथ मनुष्य की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है। और ऐसा व्यक्ति समाज के लिए कल्याणकारी नहीं अपितु विनाशकारी बन जाता हैं। उस काल में कहीं गई यह बात आज भी कितनी सार्थक और प्रभावशाली है। आज सिख समाज के लिए यह सबसे बड़े चिंता का विषय भी बन चूका है कि उसके नौजवान पतन के मार्ग पर जा रहे हैं। ऐसी शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कौम धर्म, देश और जाति का क्या ही भला कर सकती हैं?

जब एक विचार, एक आचार , एक व्यवहार नहीं होगा तब तक एकता नहीं होगी, संगठन नहीं होगा। जब तक संगठित नहीं होगे तब देश के समक्ष आने वाली विपत्तियों का सामना कैसे होगा? खेद हैं कि सिख गुरुओं द्वारा जो धार्मिक और सामाजिक क्रांति का सन्देश दिया गया था उसे सिख समाज व्यवहार में नहीं ला रहा हैं। जब तक गुरुओं कि बात को जीवन का अंग नहीं बनाया जायेगा तब तक किसी का भी उद्धार नहीं हो सकता।

जिज्ञासु – आज गुरुपर्व पर आपने गुरु साहिबान के उपदेशों को अत्यंत सरल रूप प्रस्तुत किया जिनकी आज के दूषित वातावरण में कितनी आवश्यकता है। यह बताकर आपने सबका भला किया है। आपका अत्यंत धन्यवाद।

डॉ विवेक आर्य