धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अपने को पहचानियों कि हम कौन हैं और हमारा उद्देश्य क्या है

ओ३म्

क्या हम अपने आप को जानते हैं? इसका उत्तर यह हो सकता है कि हम अपने आप को पूरी तरह तो नहीं जानते परन्तु कुछ कुछ जानते हैं। कुछ कुछ जानने का तात्पर्य है कि हम अपने माता-पिता की सन्तान हैं, अमुक-अमुक गुरुओं व विद्यालयों में हमने शिक्षा प्राप्त की हुई है, अमुक तिथि व वर्ष में हमारा जन्म हुआ है, हम भारत के नागरिक है, अनेक मतों में से किसी एक वैदिक सनातन धर्म, हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई या मुस्लिम में से हम किसी एक को मानते हैं। आज हिन्दुओं में भी सैकड़ों मत हो गये हैं। कोई सुधांसु महाराज, कोई आशाराज बापू एवं कोई किसी एक साईं बाबा आदि का अनुयायी व शिष्य है। इन गुरुओं के चेलों व अनुयायियों में भी आपस में हिन्दू होने के नाते परस्पर वेद एवं पुराणों के आधार पर व्यवहार नहीं देखा जाता। एक गुरु का चेला दूसरे गुरु व उसकी बातों को नहीं मानता। अपने गुरु से श्रेष्ठ व बड़ा दूसरा कोई गुरु व विद्वान नहीं हो सकता, ऐसी-ऐसी बातें इन मत-मतान्तरों व गुरुडमों मे प्रचलित व प्रसारित हैं। इन सबका कारण यदि देखा जाये तो वह ‘‘अविद्या” है। यदि अविद्या दूर हो जाये तो फिर यह सभी मत-मतान्तर समाप्त व एकीकृत होकर विद्या पर आधारित मत व सिद्धान्तों पर आरूढ़ हो सकते हैं और वह मत सभी विषयों में सिद्धान्त की दृष्टि से एक मुख्य सिद्धान्त ही होगा। ईश्वर सर्वव्यापक और निराकार है तो वह एकदेशी व आकार वाला कदापि नहीं हो सकता। निराकार और साकार दो परस्पर विरोधी बातें बताते हैं। ईश्वर यदि निराकार है तो, कोई विद्वान व अविद्वान कुछ भी कहे, वह साकार कभी नहीं हो सकता। क्या कोई विद्वान आकाश का आकार बता सकता है? आकाश निराकार है अतः हर स्थिति में निराकार ही रहता है। यदि हम घाटाकाश शब्द का प्रयोग करें तो इससे आकाश आकारवान सिद्ध नहीं किया जा सकता।

हम मनुष्य हैं और इसके साथ हमारी सच्ची पहचान चेतन जीवात्मा के रूप में है। मनुष्य का अर्थ मनन करने वाला प्राणी होता है। मनन बुद्धि से किया जाता है। मनुष्यों में यह बुद्धि तत्व अन्य प्राणियों से अधिक विकसित अवस्था में पाया जाता है। मनुष्य किसी विषय पर विचार कर सकता है और उस विचार व चिन्तन से अपना ज्ञान बढ़ा सकता है। पशु व पक्षी ऐसा नहीं कर सकते। इसका कारण उनके पास मनुष्य जैसा विकसित बुद्धि तत्व नहीं है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि मनुष्य केवल आकृति वाला शरीर ही नहीं है अपितु इसकी महत्ता इसमें विद्यमान जीवात्मा के कारण से है। मनुष्य का शरीर पंच महाभूतों पृथिवी, अग्नि, वायु, जल और आकाश से बना होने के कारण जड़ है। यदि शरीर में आत्मा न हो तो इस जड़ शरीर से बुद्धि का काम नहीं लिया जा सकता। मरने पर शरीर तो शरीर ही रहता है परन्तु हम ही अपनों के शरीरों को अन्त्येष्टि द्वारा उसे पंच तत्वों में विलीन कर देते हैं। अतः शरीर का महत्व तभी तक है जब तक कि इसमें अनादि शाश्वत जीवात्मा है। यह जीवात्मा ही वस्तुतः मनुष्य शब्द से सम्बोधित किया जाता है। यही आत्मा जब पशु व पक्षी के शरीर में जाता है तो इसे पशु व पक्षी कहकर पुकारा जाता है। आज जो जीवात्मा हमारे मनुष्य शरीर में है, यह पूर्ण सम्भव है कि इस जन्म से पूर्व यह किसी पशु, पक्षी या मनुष्य योनि में रहा हो व इस जन्म की मृत्यु हो जाने पर यह कर्मानुसार फिर किसी पशु व पक्षी आदि योनि में ईश्वर द्वारा भेजा जाये। हमें यही विचार करना है कि हमें मनुष्य का जीवन पसन्द है या पशु आदि प्राणियों का। यदि हम पशु बनना नहीं चाहते तो हमें ऐसा कुछ करना चाहिये जिससे हम मनुष्य व इससे भी उच्च कोटि के, ज्ञान व शारीरिक सौन्दर्य एवं बल आदि की दृष्टि से, मनुष्य ही बनें।

हमें स्वयं को पहचाना है। इसकी पहचान वैदिक साहित्य को पढ़कर ही हो सकती है। आप सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर भी स्वयं को वा अपनी आत्मा को जान सकते हैं। सभी मनुष्यों पशु पक्षियों में जीवात्मा एक जैसी ही है। इनमें स्वरूप गुणों आदि की दृष्टि से अन्तर नहीं है। भिन्न भिन्न योनियों में जीवात्मा को जन्म देने का कारण उसके पूर्व जन्मों के कर्म हुआ करते हैं। जीवात्मा ईश्वर की ही भांति अनादि व अविनाशी है। इसके इस जन्म से पूर्व अनन्त बार जन्म हो चुके हैं। यह अनन्त बार मनुष्य बना है और अनन्त बार पशु, पक्षी आदि अनेक निम्न योनियों में भी गया है और भविष्य में भी ऐसा होना निश्चित है। जो भी होगा मनुष्य के कर्मों के अनुसार ही होगा। अतः हम चाहें तो सद्कर्म, वेदविहित व सच्छास्त्र के अनुसार ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, परोपकार, परसेवा, देश व समाज सेवा करके अपने वर्तमान एवं भविष्य का सुधार कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश व दर्शन आदि ग्रन्थों में जीवात्मा को सत् एवं चित्त कहा गया है। इसका अर्थ है कि हम सबका जीवात्मा सत्य वा सत्तावान है तथा यह चेतन तत्व वा पदार्थ है। चेतन का अर्थ एक ज्ञानवान व कर्म प्रधान सत्ता होता है। ईश्वर सर्वज्ञ है अतः जीवात्मा को ज्ञान वेदाध्ययन व ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास जिसमें ध्यान व समाधि सम्मिलित हैं, होता है। सद्ज्ञान की पुस्तकों से भी ज्ञान होता है परन्तु मनुष्य के लिये अनेक विषयों के ज्ञान सहित मुख्यतः ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं करेगा तो मत-मतान्तर के लोग इसको भ्रमित कर इसके साथ अन्याय व शोषण कर सकते हैं। यह अज्ञान में भटक कर अपना अनमोल मनुष्य जीवन बर्बाद कर सकता है।

वैदिक धर्म की शरण में आकर मनुष्य को सद्ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उसे किसी मताचार्य मत विशेष के प्रति बन्धना नहीं होता। हम वैदिक धर्म को मानते हैं परन्तु हम किसी मत आचार्य से बंधे हुए नहीं है। यदि हम उनमें से किसी में सद्गुण श्रेष्ठ परम्पराओं को देखते हैं तो हम उसे अपनाते हैं और यदि उनमें कमी पातें हानिप्रद देखते हैं तो उसका त्याग कर देते हैं। सत्यधर्म का एक नियम यह भी है कि मनुष्य को सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। दूसरा मुख्य सिद्धान्त यह भी है कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आर्यसमाज यह दोनों काम करता है परन्तु विभिन्न मतों पर दृष्टि डालने पर वहां यह काम किया जाता दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि वह ऐसा करें तो उन्हें अपनी अनेक मान्यताओं एवं परम्पराओं में संशोधन करना होगा जिससे उन्हें हानि हो सकती है। इसी कारण वह सत्य को जानकर भी उसे ग्रहण करना नहीं चाहते और कई बार अनेक प्रकार के कुतर्क देखने को मिलते हैं। महर्षि दयानन्द ने धार्मिक व सामाजिक सहित राज कार्यों की अविद्या को दूर करने का प्रयत्न किया था और इसी लिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी। मत-मतान्तरों ने अपने हित व अहित को देखते हुए इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। हम विश्व के वैज्ञानिकों को धन्यवाद करते हैं जहां भौतिक जगत में सत्य की खोज की जाती है और हमारे सभी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रयोग करके पूर्व मान्यताओं की असत्यता प्रकट वा सिद्ध होने पर उसे तत्काल छोड़ देते हैं। ऐसा ही धार्मिक व सामाजिक जगत में भी होना चाहिये परन्तु यहां ऐसा नहीं किया जाता। सत्य को अपनाना ही मनुष्य जाति के पतन दुःखों का कारण है।

हम मनुष्य हैं और हम मनुष्य इसलिये हैं कि हमारी आकृति मनुष्यों के समान है और हमारे शरीर में एक अनादि, नित्य, अनुत्पन्न व अविनाशी जीवात्मा है। यह जीवात्मा एकदेशी, ससीम है व अल्पज्ञ है। अल्पज्ञान व कर्म करने की शक्ति व क्षमता से युक्त है। सभी जीव व जीवात्मायें कर्म बन्धन में बन्धी हुई हैं। कर्म पाप व पुण्य की दृष्टि से मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। पाप कर्मों का फल दुःख होता है और शुभ कर्मों का सुख। हमें पाप कर्म छोड़ने हैं व शुभ कर्मों को ही करना है। इसी से हमारा वर्तमान जन्म सार्थक होगा व परजन्म भी सुधरेगा। मनुष्य जीवन में ईश्वर व जीवात्मा सहित इस सृष्टि के अधिकाधिक रहस्यों को जानना आवश्यक है। ईश्वर का स्वरूप ‘सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वार्न्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, जीवों के पूर्व जन्मों के कर्मानुरूप उन्हें विभिन्न योनियों में जन्म देकर न्याय करने वाला, सृष्टि का रक्षक, पालक और सृष्टिकर्ता है।‘ जीवात्मा भी सत्य व चेतन है तथा शुभ-अशुभ वा पाप-पुण्य कर्मानुसार जन्म व मृत्यु के बन्धनों में बंधा हुआ है। बन्धनों को काटना व उनसे मुक्त होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसके लिये ईश्वरोपासना, योग साधना, समाधि प्राप्ति, सद्कर्म, अग्निहोत्र आदि का अनुष्ठान, सत्याचरण, परोपकार एवं परसेवा सहित देश व समाज की सेवा करनी है। जीवात्मा के स्वरूप को हम बता चुके हैं। जीवात्मा के जन्म व पुनर्जन्म होते आये हैं व होते रहेंगे। हमें अपने जीवन को सुखी बनाने के लिये असत्य कर्मों का त्याग करना होगा अन्यथा इनका परिणाम निश्चय ही दुःखदायी होगा। जीवात्मा के इस स्वरूप व स्थिति को हमें जानना है और वेदादि शास्त्रों की सत्य शिक्षाओं पर ही जीवन को चलाना है। हमारे सभी ऋषियों सहित राम, कृष्ण, दयानन्द, श्रद्धानन्द, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, पं0 लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार जी आदि महापुरुषों से हम प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं।

वेदों में कहा गया है कि मैं महान पुरुष ईश्वर को जानता हूं। वह ईश्वर आदित्य अर्थात् सूर्य के समान प्रकाशमान है तथा अन्धकार व अज्ञान से सर्वथा दूर है। उस ईश्वर को जानकर ही मनुष्य बार-बार होने वाले जन्म और मृत्यु से पार अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। हम वेदाभ्यासी बने, इसी से हमारा अर्थात् हमारी आत्मा का कल्याण होगा। ऋषि दयानन्द ने अपना जीवन लोगों के दुःखों को दूर करने और उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ बनाने में लगाया था। देश और समाज की भी उन्होंने अत्युत्तम सेवा की है। हमें उनके ही पद्चिन्हों पर चलना है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य