कहानी

कहानी – तेरी बिंदिया रे

“नन्दू दीईई…..” बाजार में नन्दिनी को अचानक देखा तो खुद को रोक नही पायी ऋचा।

“नन्दू दी रुकिए ज़रा,” अपनी तरफ उठती लोगों की निगाह से ऋचा को अंदाज़ा हो गया था कि वो ज़रूरत से कुछ ज्यादा ही तेज़ चिल्ला पड़ी थी।

नन्दिनी ठिठक कर रुक गयी पर वो पीछे की ओर मुड़ती, इस से पहले ही ऋचा दौड़ती हुई उसके सामने पहुंच चुकी थी।

“नन्दू दी… मैं कब से आपसे मिलने आने को सोच ….”आगे के शब्दों ने ऋचा के मुँह में ही दम तोड़ दिया।

नन्दिनी के सामने पहुंचते ही ऋचा ठिठक सी गयी… चेहरे पर चिरपरिचित मुस्कान… वही काले घुंघराले बालों का पहले जैसा केशविन्यास, इकहरे बदन पर पीले रंग और हरी किनारी की सलीके से बंधी सूती साड़ी, हाथों में दो दो कांच की मैचिंग चूड़ी, कानों में सोने के छोटे छोटे बूंदे और माथे पर सदाबहार गोल बड़ी सी बिंदिया।

एक माह पूर्व नन्दिनी के पति की मृत्यु का समाचार ऋचा ने भी सुना था। ऐसे समाचार छोटे कस्बों में आग की तरह से फैला करते हैं। ऋचा बचपन से जानती थी अपनी नन्दू दी को… बहुत दुखी होने पर भी वो उसके सिवा किसी से अपना दुख साझा न करेंगी। पर शहर से बाहर होने के कारण ऋचा समय न निकाल पाई और फिर आज बाजार में …

नन्दिनी को देखकर ऋचा समझ नहीं पा रही थी कि नन्दू दी के बारे में वो इतनी गलत कैसे हो सकती थी, क्योंकि यहाँ न तो चेहरे पर दूर दूर तक दुख की किसी रेखा की परछाईं थी और न ही आँखों में किसी तरह की नमी का कोई नामोनिशान ही था। तो लोग जो बातें बना रहे हैं वो …?

“अरे ऋचा तुम … कैसी हो? कितने दिन बाद नज़र आई हो… और क्या कह रही थीं तुम… मुझसे मिलना चाह रही थी? कोई खास बात थी क्या?” नन्दिनी के चेहरे पर पहले सी मुस्कुराहट देख कर ऋचा समझ नहीं पा रही थी कि नन्दू दी के इस रूप को देख कर सन्तोष की साँस ले या फिर…

“हाँ …ना… मतलब आप… आप कैसी हो?”

“अरे मज़े में हूँ …देखो मुझे” कंधे उचकाती नन्दिनी ऋचा के प्रश्न पर जान कर भी अनजान बन रही थी।

ऋचा को आज भी अच्छी तरह याद था, उसकी मौसी के घर के पड़ोस में नई नवेली दुल्हन बन कर आई थीं नन्दिनी। नाज़ुक सी देह पर सितारों जड़ा भारी लहंगा उनसे सम्भाले नही सम्भल रहा था। बालों के बड़े से जूड़े पर सजा गजरा, चूड़ी कंगन से लदी नाज़ुक कलाइयां, मेहंदी रची हथेलियां, पाँव में भारी भरकम लटकन और पेच वाली पायल सब कुछ निहारने लायक था पर सबसे ज्यादा खास थी उनकी माथे पर सजी साधारण से कुछ बड़ी बिंदी… ऋचा को वो इतनी अपनी सी लगी थीं कि उन्हें कभी भाभी न बोल पायी थी वो।

“नन्दू दी मुझे आपको देख कर बताऊँ कौन सा गीत याद आता है …. तेरी बिंदिया रे” गीत गुनगुनाती बड़ी ही तेज़ हँस देती थी ऋचा।

“अरे कहाँ खो गयी? साफ साफ बताओ न ऋचा ये जानना चाहती हो कि मैं ठीक हूँ या फिर ये कि मैं ठीक क्यों हूँ”

“नहीं नहीं दी… मैं तो बस ऐसे ही…” सकपकाहट छुपा नहीं पाई ऋचा

“अच्छा आओ वहां बैठते हैं” ऋचा को भीड़ से एक तरफ खींचते हुए नन्दिनी बोली

“बाते तो तुमने भी सुनी होंगी ऋचा जो सब जगह मेरे बारे में उठ रही हैं… ” नन्दिनी प्रश्नसूचक नज़रों से देखते हुए बोली।

“हाँ दी … लोग पता नहीं क्या क्या बकवास…”

“तुम तो जानती ही हो… मेरा सुहाग तो मेरे साथ कभी नहीं रहा … पर निशानी तो मै तब भी अपने माथे सजाती थी न? तब कभी कोई प्रश्न नही उठा… तो अब क्यों? सिर्फ इसलिए कि अब वो इस दुनिया मे नही हैं…?” नन्दिनी को स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता तो नहीं थी पर फिर भी ऋचा के सामने दिल खोलना उसकी पुरानी आदत थी

“मैंने इस रिश्ते को निभाने में कभी कोई कसर नही छोड़ी ऋचा…पर तुम्हे पता है न… मेरे पति सारा जीवन अपनी दूसरी पत्नी और उसके बच्चों के साथ रहे। और मैंने अपने सास ससुर और नौकरी को ही अपने जीने का सहारा बना लिया। हाँ, तब ज़रूर मैं लोगों के डर से या किसी उम्मीद से पति के नाम की बिंदिया माथे सजाती रही। पर अब …” शायद एक ही बार मे पूरी बात कह पाना इस समय बहुत ही मुश्किल हो चला था।

“अब… लोग मुझे निर्लज कहें या और कोई लांछन लगाएं… मुझे देख कर रास्ता बदल लें या किसी के साथ मेरा नाम जोड़ें… मुझे कोई फर्क नही पड़ता। और हाँ, अब मेरा सलीके से रहना या मेरी बिंदिया और साड़ियों का रंग किसी के होने न होने का मोहताज नही है। ये मेरे व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग है… मेरी अपनी पहचान है… ये सिर्फ और सिर्फ मेरे अपने ज़िंदा होने की निशानी है ऋचा। जिसने मुझसे कभी कोई सम्बन्ध ही न रखा उसके जाने से मैं क्यों लाश बन जाऊं?” कहते कहते नन्दिनी हांफने लगी थी।

अब और कुछ कह पाना उसके बस में नही था इसलिए ये काम आंखों ने अपने हाथ ले लिया था और वो पूरी निष्ठा के साथ अनकही बातों को आंसुओं के साथ बहा रही थीं। इधर ऋचा की आंखों से भी निरन्तर बहती अश्रुधार उसके अधखुले कपकंपाते होठों से होते हुए… ठोड़ी से छू रही उसकी गुलाबी रंग की चुन्नी को पूरी तरह भिगो चुकी थी। नन्दिनी को निहारती ऋचा ने धीरे से उसका हाथ दबाते हुए बस इतना ही कहा…
“तेरी बिंदिया रे…. ”

डॉ मीनाक्षी शर्मा
ग़ाज़ियाबाद

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा