धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेद सरल नहीं हैं। ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए ऋषि ही इसे कुछ कुछ जान सकते हैं

ओ३म्

गुरुकुल कांगड़ी के एक पुराने स्नातक पं0 भगवद्दत्त वेदालंकार हुए हैं। उनकी एक पुस्तक है ‘‘वेद विमर्श”। पुस्तक में 336 पृष्ठ हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की ओर से सन् 1966 में 53 वर्ष पूर्व हुआ था। तब इसकी 500 प्रतियां प्रकाशित हुई थी। पुस्तक का मूल्य मात्र 2.00 रुपये था। इस पुस्तक वेद-विमर्श में वेदों के अन्तर्गत आने वाले विविध विषयों तथा समस्याओं आदि का सूक्ष्म विवेचन विद्वान लेखक ने किया है। पुस्तक की भूमिका गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के आचार्य पं0 प्रियव्रत वेदवाचस्पति ने लिखी है। वह लिखते हैं कि गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के सुयोग्य स्नातक श्री पं0 भगवद्दत्त जी ने वेदों के भिन्न-भिन्न विषयों पर अनेकों खोजपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अब इनकी ‘वेदविमर्श’ नामक पुस्तक पाठकों के समक्ष उपस्थित है। इस पुस्तक मे विद्वान् लेखक ने वेदों के सम्बन्ध में विभिन्न विषयों पर तर्क संगत ऊहापोह किया है। वेदों की समस्याओं को समझने एवं उनकी गुत्थियों को सुलझाने का एक प्रशंसनीय प्रयत्न है। यह पुस्तक लिखकर श्री पं0 भगवद्दत्त जी ने वैदिक वांगमय पर लिखे गये साहित्य में एक उपयोगी पुस्तक की वृद्धि की है।’ पुस्तक के लेखक ने पुस्तक विषयक जो आमुख दिया है वह भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। पुस्तक में जिन प्रमुख विषयों को सम्मिलित किया गया है वह हैं, वेद सरल नहीं है, वेदों की माता (वाक्), वेदों का साक्षात्कार, सामवेद की वेद के रूप में आवश्यकता, बृहत्-रथन्तर। इन शीषर्कों व विषयों के अनेक उपशीर्षक भी हैं। इसके बाद 12 वेद-विषयक निबन्ध भी विषयक सूची में हैं। पुस्तक के अन्त में लेखक की एक अन्य पुस्तक ऋषि-रहस्य’ पर दर्शनों के भाष्यकार पं. उदयवीर शास्त्री की समीक्षा दी गई है जिसमें उन्होंने विस्तार से पुस्तक का महत्व बताकर लेखक की इस कृति की प्रशंसा की है। पं0 गोपाल शास्त्री (दर्शन केसरी), अध्यक्ष, श्री काशी पंडित सभा द्वारा लेखक की पुस्तक वैदिक-स्वप्न-विज्ञान’ पर संस्कृत भाषा में दी गई सम्मति को भी प्रकाशित किया गया है। वैदिक स्वप्न विज्ञान पर ही श्री वासुदेव शरण अग्रवाल एवं पं0 विश्वबन्धु शास्त्री जी, हरिद्वार द्वारा सन् 1945 में दी गई सम्मतियों को भी सम्मिलित किया गया है। इस प्रकार से यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका पुनः प्रकाशन हमारी दृष्टि में देखने में नहीं आया। हमारा सौभाग्य है कि सन् 1966 में प्रकाशित 500 प्रतियों में से एक प्रति हमारे पास है।

वेद सरल नहीं है’ इस प्रथम अध्याय में लेखक लिखते हैं कि पाश्चात्य विद्वानों के विचारों से प्रभावित अभिभूत होकर कई भारतीय विद्वानों की यह धारणा बन गई है कि जिस प्रकार कुरान, बाइबल आदि अन्य धर्मग्रन्थ सर्वसाधारण जन के लिये बोधगम्य हैं, सरल हैं, उसी प्रकार वेदों को भी हमें सर्वसाधारण के लिये बोधगम्य बनाना चाहिये। परन्तु इस सम्बन्ध में प्राचीन ऋषि, मुनियों का मत इसके विपरीत है। वेद मन्त्रों के अपने उद्गार भी ऋषियों के मत की पुष्टि करते हैं। निरुक्त के शब्दों में उनका कहना यह है कि जो तपस्वी नहीं हैं, जो ऋषि-कोटि में नहीं पहुंचा है, उसे मन्त्रों देवताओं के रहस्य का प्रत्यक्ष त्रिकाल में भी नहीं हो सकता। इसलिये गुह्य विद्या से परिपूर्ण तथा समग्र ब्रह्माण्ड का ज्ञान देनेवाली इस वेदवाणी के परले छोर पर तप द्वारा पहुंचने का प्रयत्न करना चाहिये। तैत्तिरीय ब्राह्मण में एक कथा आती है–जो इस पर अच्छा प्रकाश डालती है। वह इस प्रकार है कि–भरद्वाज ऋषि ने तीन जन्मों में आजन्म ब्रह्मचर्य धारण करके वेदों का अध्ययन किया। जब वह वृद्धावस्था में जीर्ण शीर्ण मृत्यु-शय्या पर पड़ा था, तब इन्द्र ने उसके पास आकर कहा कि हे भरद्वाज! यदि मैं तुम्हें चौथा जन्म और दे दूं तो तुम क्या करोगे? भरद्वाज ने उत्तर दिया कि उस जीवन में भी मैं आजन्म ब्रह्मचारी रह कर वेदों का स्वाध्याय ही करूंगा। इस पर इन्द्र ने उसे तीन बड़े अज्ञात पहाड़ दिखाये और हर एक से एक-एक मुट्ठी लेकर कहा कि भरद्वाज! आओ, देखो ये वेद हैं, ये अनन्त हैं। तू तो तीनों जन्मों में थोड़ा सा ही पढ़ पाया है। अधिकांश तो तेरे लिये अज्ञात ही पड़ा है, आओ इसे जानो। इस में सब विद्याएं हैं। 

इस ऐतिह्य का भाव स्पष्ट है कि भरद्वाज ऋषि तीन जन्मों तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर के भी वेदों के पूर्ण ज्ञाता नहीं बन सके। उन्हें इन महान्, विशाल तथा अत्युन्नत वेद-पर्वतों से केवल एक-एक मुट्ठी ज्ञान प्राप्त हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि वेद इतने सरल नहीं हैं कि सर्वसाधारण जन इन्हें समझ सकें। जिन मन्त्रों के अर्थ व देवताओं के स्वरूपों के सम्बन्ध में हम यह समझते हैं कि ये तो हमें ज्ञात हैं, पता नहीं वे भी वास्तव में ज्ञात हैं कि नहीं?

शाकपूणि आचार्य यह समझता था कि मैं सब देवताओं व उनके स्वरूपों को जानता हूं। उसके मन में इतना संकल्प पैदा ही हुआ था कि एक उभयलिंगी देवता उसके सामने प्रकट हुई। वह उसे न जान सका।

इस प्रकार निरुक्त व व्याकरण आदि ग्रन्थों का प्रकाण्ड पण्डित व मन्त्र-विचार में प्रवीण शाकपूणि भी जब देवताओं के स्वरूप को नहीं जान सका तो इससे यह स्पष्ट है कि वेदार्थ-बोध इतना सरल नहीं है कि सर्वसाधारण जन भी उसे भली-भांति समझ सकें। विद्वानों में भी वेदों का पूर्णज्ञाता तो दूर रहा, वेदों का स्थिरपीत भी कोई विरला ही होता है। वेद-दुग्ध का पान करने के लिये प्रायः सभी मायारूपी एक कृत्रिम वाक्-धेनु का निर्माण कर लिया करते हैं जो कि सच्ची वाक्-धेनु नहीं होती। एक स्वतः निर्मित कृत्रिम वाक्-वृक्ष को अपने अन्दर अंकुरित कर लेते हैं, जिसमें कोई पुष्प फल नहीं होता। वेदों का ज्ञान प्राप्त कर के हम इस भूतल के ही सर्व प्रकार के कल्याणों को नहीं प्राप्त कर सके, अन्य लोकों के कल्याणों की तो बात ही दूर है। इससे यह स्पष्ट है कि हमें वेदों का सच्चा ज्ञान नहीं हुआ है।

हमारे मंत्रोच्चारण में यह शक्ति नहीं जो सफल क्रिया कर सके। अतः हमें मानना पड़ता है कि वेद हमारे हाथ में आकर कुण्ठित हो गये हैं। वेद का यह स्पष्ट कथन है कि यह वेदवाणी किसी बिरले व्यक्ति के लिये ही अपने स्वरूप को खोलती है। प्रश्न यह है कि वह कौनसा व्यक्ति है? इसका उत्तर यह है कि वह ऋषि है। इसी लिये प्रत्येक मन्त्र पर ऋषि दिये गये हैं। इस प्रकार वेद व वैदिक साहित्य के कुछ उद्धरण हमने प्रदर्शित किये, और भी अनेकों उद्धरण इस सम्बन्ध में दिखाये जा सकते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ऋषित्व की प्राप्ति कर स्पष्ट होने वाली ऋषियों की इन गूढ़ दृष्टियों को सामान्य जन कैसे जान सकते हैं? इसके बाद वेद सरल नहीं है अध्याय के उपशीर्षकों यथा वेदों के अध्ययन की दो पद्धतियां, वेदों की आत्मा (अर्थ), वेद का सत्य अर्थ, तर्क द्वारा अर्थ, अर्थों की इयत्ता, मन्त्रों का विनियोग, अर्थों का प्रवाह, सूक्ष्मता की ओर (सोम, घृत, गौ), अर्थों में मुख्य गौणभाव, वेदों का सूक्ष्म धरातल (अग्नि, इन्द्र, सोम), ब्राह्मण ग्रन्थों में वेदोत्पत्ति प्रक्रिया, अग्नि से ऋग्वेद की उत्पत्ति, वेदोत्पत्ति का माध्यम गायत्री, वेदोत्पत्ति का माध्य ऋषि-प्राण, ऋषि एक विशिष्ट गति के अन्तर्गत भी वेद सरल नहीं है, कथन को प्रकट किया गया है।

हम यह भी कहना चाहते हैं कि आजकल स्वाध्याय की प्रवृत्ति बहुत कम हो गई है। प्रकाशक पुस्तक प्रकाशित करते हैं परन्तु वह पर्याप्त संख्या में पाठकों द्वारा खरीदी नहीं जाती। इसी कारण कोई ग्रन्थ एक बार छप जाये और अप्राप्त हो जाये तो उसका पुनर्प्रकाशन नहीं हो पाता। यही स्थिति हम वेद-विमर्श’ ग्रन्थ के साथ भी देख रहे हैं। दूसरी बात यह भी है कि आजकल आर्यसमाज में लेखकों की भरमार है। वह सब अपने-अपने ग्रन्थों के प्रकाशन में रूचि रखते वा सक्रिय रहते हैं। इस कारण भी अनेक अच्छे ग्रन्थों का मुद्रण और प्रकाशन नहीं हो पाता। अतः सभी प्रकाशकों को पुराने शीर्ष विद्वानों के प्रसिद्ध अप्राप्य ग्रन्थों का पुनर्मुद्रण व प्रकाशन करते रहना चाहिये। आर्यों को भी नित्य प्रति उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन करते रहना चाहिये। यदि वह अध्ययन न भी कर सकें तो पुस्तकों को क्रय करने की प्रवृत्ति विकसित करें। इससे भी साहित्य जगत को लाभ होगा। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य