कहानी

कहानी – बरगदवा बाबा

गांव में सड़क के किनारे बरगद का पेड़! महज पेड़ भर नही, रोज़ उगते और डूबते सूरज और चहचहाते पंछियों के मधुर गीतों का साक्षी भी है। वो आज भी राह तकता है अपने नीचे खेलकर बड़े हुए बच्चों और बच्चियों का, जो यहां आकर उसकी शान में दो चार अल्फ़ाज़ कह जाएं और बरगद की साधना सफल हो जाए। उसकी आंखें पथरा चुकी हैं नीहारते नीहारते लेकिन कोई नही आता और अगर कोई आता भी है तो भूलकर भी बरगद के पेड़ की तरफ़ नही देखता, जिसने उन्हें जी भर कर जीने के लिए सांसें मुहैया कराई और अपने मख़मली परों से उनके बचपन और जवानी को सींचा था।
मैं वर्षों से ‘बरगदवा बाबा’ के नाम से इस पेड़ के सुख दुख में शामिल हूँ और शायद इसी की छांव में मेरी ज़िन्दगी भी तमाम होगी। अगल बग़ल के दर्जनों गांव के लोग मुझे बरगदवा बाबा के नाम से ही संबोधित करते हैं।
पचास साल पहले मुझे यहां ब्रुक्स के ग़ुंडे अधमरा छोड़ गए थे। तब से अब तक यहीं धूनी रमाए बैठा हूं। इसने मुझे शरण दिया और यहां से जाने के लिए कभी नही कहा। कभी इसकी लटकती हुई लटें मुझे झूला झूलाती रहीं तो कभी इसकी घनेरी छांव मुझे लोरियाँ सुनाती रहीं। इसकी छांव में पली न जाने कितनी प्रेम कहानियों और नफ़रत के किस्सों के साझा गवाह रहे हैं हम दोनों।
कल शाम से ही मौसम अब्र आलूद है। सावन का महीना धीरे धीरे भादो की तरफ़ अग्रसर है। पिछली रात भर बूँदा बाँदी होती रही। मैं अपनी कुटिया में प्लास्टिक के छप्पर के नीचे रात भर ख़ुद को दुबकाए आधा सोता आधा जागता रहा। इसी उधेड़बुन में मुझे अपनी कहानी याद आने लगी।
आज़ादी से दो महीने पहले हिकमत नगर से अंग्रेज़ रूख़्सत होने लगे। लेकिन एक अंग्रेज़ सिपाही ब्रुक्स, हकीम चंद की बेटी मानसी के इश्क़ में ऐसा डूबा की यहीं का होकर रह गया।
हकीम चंद पर ज़मीनदार बनने का जुनून सवार था। उनकी इकलौती बेटी मानसी, बेहद सौम्य और सुंदर थी। ब्रुक्स ने जबसे उसे देखा था उसका दीवाना हो गया था। उसने अपने हिस्से की ज़मीन में से आधा मानसी के पिता को देकर मानसी को अपनी दुल्हन बना लिया।
मैं हकीम चंद के दीवान का बेटा ठहरा। पिता जी के मरने के बाद हकीम चंद ने मुझे अपनी पनाह में रखकर मुझपर बहुत बड़ा उपकार किया था। मुझे पढ़ाया लिखाया और अपना सिपाही बनाया।
 मैं बचपन से लेकर किशोरावस्था तक मानसी के साथ पढ़ा लिखा और खेला कूदा था इसलिए सगी बहन नही होते हुए भी बहन भाई का रिश्ता था हम दोनों में। हकीम चंद को मुझपर इतना भरोसा था कि उन्होंने मानसी की देखभाल के लिए मुझे ब्रुक्स की हवेली में बहैसियत सिपाही रखवा दिया।
शादी के एक हफ़्ते बाद तक मुझे मानसी से मिलने का अवसर नहीं मिला। सप्ताह भर बाद एक दिन वो बालकनी में टहलते हुए नज़र आ गई। चेहरा ज़र्द और बुझा बुझा सा लग रहा था। मुझे हैरत हुई कि इतने बड़े आदमी से शादी होने के बाद भी इस लड़की का हफ़्ते भर में ये क्या हाल हो गया।
मुझे उसकी फ़िक्र सताने लगी। मैं उससे मिलने के लिए बेचैन हो गया लेकिन ब्रुक्स की सख़्ती की वजह से मिल नही पा रहा था। मैं ब्रुक्स का सिपाही था और मुझे अपनी औक़ात का पता था।
एक दिन बग्गी में बैठते हुए सिमरन ने मुझसे कुछ कहना चाहा लेकिन ब्रुक्स ने कोचवान को बग्गी आगे बढ़ने का हुक्म दे दिया और बग्गी आगे निकल पड़ी।
बाद में पता चला कि ब्रुक्स मानसी को जनाना अस्पताल में ईलाज कराने शहर ले गया था। बहन जैसी मानसी का दुख सुनकर उस रात मैं सो नही सका।
    एक दिन मानसी बाग़ में टहल रही थी और मैं फूलों की कियारी में पानी पटा रहा था। उसी दौरान मौक़ा देखकर उसने कहा –
“कबीर!!! ये बात कहते हुए मुझे शर्म आ रही है लेकिन शारीरिक पीड़ा अब बर्दाश्त नही होती। ब्रुक्स इंसान के भेष में जानवर है जानवर। वो मुझे शराब पीने के लिए बाध्य करता है और फिर मेरे साथ जानवरों जैसा व्यवहार करता है। मैं उसके साथ अमानवीय संबंध बनाते बनाते थक चुकी हूं।
 ये बात मैं पिता जी को बता नही सकती। मां तो है नहीं जो बेटी का दर्द बांट सके, इसलिए तुम ही मेरे ग़मख़्वार और राज़दार बन सकते हो। मेरी मदद करो कबीर – – नही तो मैं मर जाऊंगी।”
महीना बीतते बीतते मानसी ब्रुक्स की अंग्रेज़ी कल्चर से बेज़ार हो गई।
मुंहबोली बहन की पीड़ा को समझते हुए मैंने उसे इस नर्क से निकालने का फ़ैसला कर लिया।
वो बरसात की एक रात थी, अंधेरा झांव झांव कर रहा था। मानसी दबे पांव चहारदीवारी की तरफ़ चली आ रही थी जहां मैंने सीढ़ी लगा रखी थी।
तभी ब्रुक्स का अंग्रेज़ी डॉग जाग गया और भोंकते हुए मानसी की तरफ़ दौड़ पड़ा।
मानसी ख़ौफ़ के मारे जहां थी वहीं बेहोश होकर गिर पड़ी। मैं उसे उठाने के लिए दौड़ पड़ा तभी ब्रुक्स और उसके सिपाही आ पहुंचे और हम पकड़े गए।
फिर क्या था। मार इतनी पड़ी कि मैं बेहोश हो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ पता नहीं। जब होश आया तो ब्रुक्स की हवेली से आठ दस कोस दूर इस बरगद के पेड़ के नीचे ख़ुद को पाया। उस ज़माने में इधर आबादी नही हुआ करती थी। मेरे एक हाथ और दोनों पैर की हड्डियां टूट चुकी थीं। चूंकि ईश्वर को मुझे बचाना मंज़ूर था इसलिए जड़ी बूटियों का सहारा मिला और मरते मरते मेरी जान बच गई।
तीन महीने बाद जब चलने फिरने के क़ाबिल हुआ तो पता चला कि ब्रुक्स अपनी हवेली बेचकर कलकत्ता चला गया। ज़ाहिर बात है कि मानसी को भी साथ ले गया होगा लेकिन उसके बारे में मुझे कोई ठोस जानकारी नहीं मिली।
आज अह्ले सुबह जब सूरज निकलने के लिए मचल रहा था,तभी चार पांच बच्चे एक विक्षिप्त बुढ़िया को चिढ़ाते दौड़ाते मेरी तरफ़ आते दिखे। मैं नित्य क्रिया से फ़ारिग़ होकर चापाकल पर मिट्टी से हाथ मांझ रहा था।
बच्चों को डराने के लिए मैंने तन कर खड़ा होना चाहा लेकिन चूंकि बुढ़ी हड्डियां अपनी लचक खो चुकी थीं इसलिए सीधा खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। मैंने झुके झुके ही बच्चों को डांट कर बुढ़िया को बच्चों से बचाया।
बुढ़िया के क़रीब गया तो उसका धुंधला धुंधला चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लगा। तभी वो अचानक मेरी जटाओं और दाढ़ी मूंछों को हटा हटा कर मुझे पहचानने की कोशिश करने लगी। पहचान मुकम्मल होने के बाद वो अपने आंचल की गांठ खोलने लगी। बीच बीच में वो कुछ बुदबुदाती जाती और कभी कभी अपना सिर खुजाती जाती। मैं अचंभित होकर उसकी हर गतिविधि को देख रहा था। उसकी आंचल की गांठ से ‘राखी’ निकलते देखकर मुझे फ़ौरन मानसी की याद आ गई जो हर साल मुझे रक्षाबंधन पर राखी बांधा करती थी।
मैंने उसे झकझोर कर पूछा – मानसी???
लेकिन वो चुपचाप मेरी कलाई पर राखी बांधती रही।
मैंने फिर पूछा – आज रक्षा बंधन है???
तब उसने ‘हां’ में सिर हिलाया।
मैंने फिर उससे पूछा – ‘तुम मानसी हो???
उसने फिर ‘हां’ में सिर हिलाया और फफक फफक कर रोने लगी।
रोने के लिए तो मेरा भी मन तड़प उठा लेकिन आंसू तो कब का साथ छोड़ चुके थे। मानसी रो रही थी मतलब वो पागल नही थी। लेकिन अपनी हरकतों से वो पागल ज़रूर लग रही थी। उसका शरीर अब मात्र हड्डियों का ढांचा रह गया था। सफेद बाल गंदे हो होकर मटमैले हो चुके थे। आगे के दो दांत ग़ायब और गाल पिचक कर गड्ढों में तब्दील हो चुके थे।
मैं उसे जी भरकर निहारे जा रहा था। मेरे मन में तरह तरह के सवाल उमड़ रहे थे। वो आज तक कहाँ थी? उसके दिन कैसे बीते? ब्रुक्स का क्या हुआ – वग़ैरह – – वग़ैरह – –
लेकिन किसी दीवाने से कोई भी सवाल पूछना बेमानी था।
मैं अपने ख़यालों में गुम था तभी अचानक उसके मूंह से निकला “बरगदवा बाबा” – – और वो ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी।
मैं उसकी हंसी का राज़ समझने की कोशिश कर रहा था कि बरगद का पेड़ रात में संजोकर रखे हुए बारिश की बूंदों को झूम झूम कर हमारे ऊपर बरसाने लगा।
— अब्दुल ग़फ़्फ़ार 

अब्दुल ग़फ़्फ़ार

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