सामाजिक

विधवा

एक विधवा औरत की पूरी जिंदगी जीना, किसी अभिशाप से कम नहीं होता हैं।
इन्हें अशुभ और मनहूस मान लिया जाता हैं।
इन्हें क्या पहनना है? कैसे रहना हैं? कहाँ जाना है?, ये घर परिवार और समाज फैसला करते हैं।
थोड़ी रंगीन साड़ी पहन ली, या कुछ शौक श्रृंगार कर ली तो, उसपे व्यंग्य कसे जाने लगते हैं।
क्या औरत के पति के मरने के बाद, उसका भी सब कुछ खत्म हो जाता हैं?
वही विधुर मर्द को कोई कुछ नहीं कहता हैं, वह कैसे रहे, क्या पहने?
वह तो पत्नी के मरने के बाद एक वर्ष का इंतजार करेगा, और फिर दूसरी शादी भी कर लेगा।
वही विधवाओं को दूसरी शादी भी करना पाप समझा जाता हैं।
किसी भी शुभ कार्य के लिए, इन्हें अशुभ माना जाता हैं।
और बहुत से लोग विधवाओं को मनहूस कहके अपने घर से भी निकाल देते हैं।
इनकी हक और अधिकार भी छीन लिए जाते हैं।
ये बेचारी इतना, बेसहारा हो जाती हैं कि , वे अपने मायके में भी पनाह नहीं पाती हैं।
वहाँ पर भी आसपड़ोस और समाज के लोगों की नजरों में अपवित्र होती हैं।
ये विवश होकर इधर – उधर भटकने को मजबूर हो जाती हैं ।
आखिर में इन्हें किस बात की सजा दी जाती हैं।
पहले सती प्रथा के नाम पर जलाई जाती थी, और अब इन्हें जीते जी सताई जा रही हैं।
इन्हें अपने पति को खोने की गम सदा इनकी आंखों में झलकता हैं।
जानबूझकर ये अपने पति की कत्ल नहीं करती है, फिर भी इन्हें क्यों सजा दी जाती हैं।
औरत को संजने -संवरने की शौक ज्यादा होती हैं।
उन्हें सजना अच्छा लगता है,
क्या पति के मरते ही , क्या शौक भी मर जाता हैं?
माना कि सिंदूर और मंगलसूत्र और बिछिया , सुहाग की निशानी हैं, और कोई भी विधवा औरत इसको भूलकर भी नहीं पहनेंगी।
बाकी के शौक तो वह कर सकती है ना।
क्या सिर्फ इन्हें सफेद लिबास में ही लिपटा देखे?
लेकिन कोई भी औरत थोड़ी सी शौक क्या कर ली, जैसे वह पाप कर दी हो।
सबसे पहले औरतें ही इसका विरोध करेंगी।
कहते हैं ना औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं।
कानाफूसी करना शुरू कर देंगी।
यदि औरतें ही अपनी मानसिकता और नजरिया बदल ले तो, समाज स्वत बदल जायेगा।
हर औरत की उसका पति ही हमसफ़र और हमदर्द होता हैं।
यदि वही जिदंगी से चला जाए तो, उस औरत की जिंदगी विरान और सूनी हो जाती हैं।
उसे सहारे की जरूरत होती हैं।
उसको अपवित्र और अछूत , मनहूस कहकर, उसके जख्म को और ना बढ़ाए।
हम सबको अपनी पुरानी विचार धाराओं को त्याग कर, विधवाओं के प्रति सम्मान देना होगा।
उन्हें क्या करना है, कैसे रहना है, इसका निर्णय उसको खुद लेने की अधिकार देनी चाहिए।
हम सबका कर्तव्य हैं कि उसका अधिकार, मान सम्मान देकर, उसे भी अपनी आजादी से जिदंगी जी सकें।
और उसकी रंगहीन जिदंगी में, रंग भरके , नई जिदंगी दें।
सरकार भी विधवा औरत से शादी करने पर, दस हजार रुपये और प्रोत्साहन राशि देकर, उनको सम्मानित करती है।
मरना – जीना तो सब भगवान के हाथ में है, इसमें औरत की कसूर नहीं होती हैं।
किसी भी मंदिर में, भगवान ये नहीं कहते हैं कि विधवा औरत मेरी पूजा ना करें।
!!एक औरत कभी अपवित्र हो ही नहीं सकती हैं!!
— मृदुला कुश्वावाहा 

मृदुला कुश्ववाहा

गोरखपुर