गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

होगी  विदा  ये  ज़िंदगी  इक  दिन  क़ज़ा के साथ ।
फिर क्यों  न जी  लें  यार  इसे   मुस्कुरा  के साथ ।
जबसे  जुड़ा  है  रूह  का  नाता  ख़ुदा  के  साथ ।
चलता  हरेक  पल  कोई  दीपक  जला  के साथ ।
साक़ी,  शराब , जाम , ग़ज़ल , बज़्म  का  शबाब ,
अपनी  ये   ज़िंदगी  भी  कटे  इस  अदा के साथ ।
काँटों   की   सरपरस्ती   में   महफ़ूज   हैं  गुलाब ,
अपना  वजूद  रखते  हैं  क़ायम   अना  के  साथ ।
करवट   बदल   बदल    के तड़पते हैं   हर्फ़ जब ,
इक शेर   शक्ल  लेता  है   तब   इंतहा   के साथ ।
सुनने   का    सुनाने   का    मज़ा  आएगा  तभी ,
करिए   हज़ूर   वाह   भी  इक  मरहबा  के साथ ।
क्या   है  गलत   सहीह    मुझे   कुछ  नहीं पता ,
चलती कलम भी अपनी ये उसकी रज़ा के साथ ।
सज़दे  में  आके  माँगता  इतना  फ़क़त  प्रखर ,
सबकी  दुआ  क़ुबूल  हो  मेरी  दुआ  के  साथ ।
— राजेश प्रखर
क़ज़ा – मौत
महफूज़- सुरक्षित
सरपरस्ती- छत्रछाया
इंतेहा- पराकाष्ठा

राजेश श्रीवास्तव 'प्रखर'

राजेश श्रीवास्तव प्रखर कटनी (म.प्र.)