लघुकथा

अपराध बोध

“कितनी बार कहा है तुमसे ,इसे अपने आँचल से बाहर निकलने दो ;लेकिन नहीं, तुम्हारा सहारा लेकर हमेशा गोद में दुबकना चाहता है ।”
“ऐसा नहीं है जी ,मैं हमेशा इसे बाहर भेजने की कोशिश करती हूँ और समझाती भी हूँ कि पापा के साथ फैक्ट्री जाना शुरू करो ,लेकिन वह कहता है ,”मम्मी मैं जब भी पापा की फैक्ट्री में जाता हूँ मुझे एक अजीब सा भय लगता है उन मशीनों से आती आवाजें मुझे वहाँ से भागने के लिए मजबूर करती हैं।”
“कोई डॉक्टर भी इसके भय की वजह नहीं जान पाए हैं अब ऐसा कैसे चलेगा ? तुम अच्छी तरह जानती हो मैंने यह साम्राज्य हमारे बेटे के लिए खड़ा किया है।”राकेश जी थोड़े उग्र होकर बोले फिर बेटे की ओर मुख़ातिब होकर बोले,” बेटा तुम अपनी दीदी से कुछ सीखो ।देखो ,आज वह कितने बड़े पद पर है और डर-भय जैसे उसे छू भी न गया हो । अब मैं चाहता हूँ कि तुम भी ऐसे ही हमारा नाम रोशन करो।”
इसी अन्यमनस्कता में न जाने कब राकेश जी को झपकी आ गई । छमछम करती हुई चली आ रही है एक गुलाबी परी । “पापा मैं अनगिनत सपनों को पंख देने आ रही थी ;मेरी धड़कन आप  दोनों के लिए स्पंदित होने लगी थी लेकिन आपने मुझे पग धरने से पहले अस्तित्व विहीन करने के लिए हत्यारों को सौंप दिया । पापा, क्या सच में आपका दिल नहीं पसीजा ?  मुझे भी जीने का हक़ था आपने क्यों वंचित किया मुझे इस हक़ से?  वह लोहे के औजार आज भी मुझे डराते हैं । पापा, मैं ही वापिस आई हूँ इस घर में, बस चोला आपके बेटे का पहन लिया ।”
— कुसुम पारीक

कुसुम पारीक

B 305 राजमोती 2 पो.ओ. वापी जिला -वलसाड गुजरात पिन- 396195