हास्य व्यंग्य

कुछ नेकी कर,नेकी की दीवार पर ही सही….

इधर सिंगापुर ने लॉकडाऊन एक जून तक बढ़ा दिया और उधर डब्ल्यू एच ओ ने भी डरा दिया है कि आगामी माह में इनसे भी बुरे दिन देखने को मिलेंगे।यह सब देखकर मैं डरा,सहमा और सिमटा हुआ बैठा था।अब टीवी भी देखूं तो कितना और कुंभकर्णी लेट लगाऊं तो कितनी!घरवाली के साथ किचन में यह-वह बनाने की जोर-आजमाइश भी कितनी!वैसे भी समझ नहीं आ रहा है कि इन दिनों में क्या पहने- ओढ़े और क्या खाएं-पीएं!
जैसे-तैसे सुबह-सुबह मुँह पर से मक्खी उड़ाई और बेडरूम से बाहर निकला तो मार्निंग वॉक के शू बड़ी ही हसरत भरी नजरों से मेरी ओर देख रहे थे तो दूसरी ओर बेचारी स्लीपर अपने भाग्य को रो रही थी।शू बोला-” कम से कम मेरे ऊपर चढ़ चुकी धूल को ही साफ कर दो,घर की छत तक की फेरी लगवा दो,लगे हाथ पड़ोसन से नयन चार कर लेना।”स्लीपर खुश हो गई, बोली-” चलो, कुछ पल के लिए ही सही,कुछ तो आराम मिलेगा वरना तो घस-घस के तला तक पैरों से चिपटने की स्थिति में आ गया है।”
मैंने गुस्से में शू को देखा और बोला-“मेरा कैरेक्टर ऐसा ढीला लगता है बे तुझको!”और फिर उसपर तिरस्कार की दृष्टि डालते हुए कातर दृष्टि से देख रही स्लीपर पर पैर रखते हुए बलात संग होकर घर में ही इधर-उधर होता रहा और स्लीपर की चीखों को अनदेखा करता रहा।क्योंकि मेरे भीतर की चीखें भी तो कोई नहीं सुन रहा था।
जब चाय-नाश्ता ठूंसकर गुसलखाने की तरफ जा रहा था तो अलमारी में रखे कपड़ो में खलबली मच गई, उन्हें लगा कि चलो आज तो किस्मत खुल ही जाएगी किन्तु गुसलखाने से बाहर आने के बाद वही टी शर्ट -बरमूडा पहनने की ओर कदम बढ़ाया तो पेंट-शर्ट आपा खो बैठे,बोले-“हमें यहाँ सड़ने के लिए पटक रखा है, हमारा नम्बर कब आएगा! पहले तो रोजाना अदल-बदल कर कपड़े पहनते थे और अब हालत यह हो गई है कि हमें हवा खाने को ही नहीं मिल रही है।” मैंने कहा-” तुम्हें मालूम नहीं कि कोरोना ने कहर बरपाया हुआ है और लॉकडाऊन चल रहा है। अभी जब कहीं बाहर जाना नहीं है और घर में पहनकर किसी को बताना नहीं है तो बताओ भला,तुम्हारा नम्बर कैसे आ सकता है!”तभी कुर्ते-पायजामों ने हांक लगाई-” अरे,हमें तो घर-बाहर कहीं भी पहन सकते हो।आपने तो बस टीशर्ट-बरमूडा को मुँह लगा रखा है इस उम्र में, शर्म-लिहाज भी तो कोई चीज है कि नहीं।वैसे भी ये अच्छे वक्त के साथी है भी कहाँ?इस कस्बे में न तो इन्हें पहनकर बाहर जा सकते हो और घर पर कोई अकस्मात आ जाए तो इधर-उधर मुँह छुपाते फिरो!
मैंने उनकी बातों को अनदेखा किया तो शादी में मिला एकमात्र सूट गर्माता हुआ बोला-” देखो तुम्हारी कई मौकों पर मैंने लाज बचाई है,पार्टी-शार्टी में।अब हम अपनी उपेक्षा कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते।” इतने में पास ही रखे शू केस में से दो जोड़ी शूज एक साथ चिल्लाए-“देखो,हमारी उपेक्षा असहनीय है।पहले जब बाहर जाना होता था तब मुँह चमकाऊ पॉलिश कर लाइन मारते थे,अब कहीं ताका-झांकी का अवसर नहीं तो देवदास बने बैठे हो।”
शूज की बात सुनकर सभी एक साथ उत्तेजित स्वर में बोल पड़े-” देखो,हम यह नहीं कह रहे हैं कि तुम बन-संवरकर घर से बाहर निकलो,लेकिन घर में तो सलीके से रहो।इससे घरवालों को भी लगेगा कि तुम घरवास में उनके साथ खुश हो।या फिर ऐसा करो कि अभी जरूरतमंद लोग बहुत हैं,कुछ नेकी करो और हमें नेकी की दीवार पर टांग आओ।”
उन सबकी बात मुझे तो कुछ-कुछ समझ में आ गई है, लॉकडाऊन के दौर में घरवासियों,क्या आप भी समझ रहे हैं!

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009