इतिहासलेख

कार्ल मार्क्स की जयंती पर भी श्रमिकों की कद्र नहीं होती, अन्य दिनों की बात छोड़िए !

कार्ल मार्क्स की जयंती पर भी श्रमिकों की कद्र नहीं होती, अन्य दिनों की बात छोड़िए ! इस महान व्यक्तित्व और इस शख़्सियत के कृतित्व को समर्पित कविता प्रस्तुत है-

“हम चोर नहीं, मजदूर हैं
हमारे बच्चे इसलिए कूड़े बीनते
कि पूँजीपति श्रीमान इसे फैलाते हैं
इसे मत फैलाओ, न कूड़े बीनेंगे
हमारे बच्चे भी मेधावी है
उन्हें भी सिटी मांटेसरी में भेजकर देखो
तुम्हारे बच्चे से आगे निकल जाएंगे
भले ही फटेहाल में ढके हैं हमारी काया
पर किसी ऊपरवाले की माया लिए नहीं,
है यह तुम जैसे पूँजीपतियों की माया
हमें दयाभाव नहीं चाहिए
स्वाभिमानी हैं हम
हमें सिर्फ काम चाहिए
और उनके दाम चाहिए
कोई बेगारी या जोर-जुल्म नहीं
हमें भी चाहिए ताजी हवा, शुद्ध जल
और एक छोटा ही हो घर
एक मुन्ना, एक चुन्नी और उनकी बेबे भी
सम्मान भी, साईं इतना दीजिए भी,
कबीर और मार्क्स के दर्शन भी
हाँ, जीने दो इच्छानुरूप हमें
हम चोर नहीं, मजदूर हैं
मजदूर भी नहीं,
सिर्फ श्रमशक्ति हैं !”

अपनी कवितांश के साथ कार्ल मार्क्स को नमन और श्रद्धांजलि ! दरअसल पहली मई ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस’ के बाद मजदूरों के सबसे बड़े हिमायती रहे आदरणीय कार्ल मार्क्स का जन्मदिवस 5 मई है । चूँकि एक मजदूर या श्रमिक देश के निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाता है, जो कि देश के विकास में अहम योगदान लिए होता है। सत्यश:, देश, समाज, संस्था और कल-कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों की अहम भूमिका होती है। मजदूरों के बगैर औद्योगिक इकाइयों के खड़े होने की कल्पना नहीं की जा सकती, इसलिए श्रमिकों का समाज में अपना ही एक महत्व है। मार्क्स का आगमन सर्वहाराओं का ही उदय था, यथा- दुनिया के श्रमिकों एक हो ! श्रमिकों को खोने के लिए हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ हैं, पर पाने के लिए सम्पूर्ण संसार । साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने ‘सारा आकाश’ इसी के तत्वश: लिखा !

जन्मभूमि जर्मनी में कार्ल मार्क्स न जीते-जी सम्मानित थे, न ही अभी उनकी कद्र है वहाँ ! वैसे उनके जीते-जी ऐसी कोई क्रांति नहीं हो पायी ! लन्दन में 14 मार्च 1883 को उनकी मृत्यु के 34 साल बाद रूस में क्रांति ज़रूर हुई. उस समय ज़ार यानी सम्राट राजशाही, प्रथम विश्वयुद्ध के कारण इतनी जर्जर हो चली थी कि रूसी सोशल डेमोक्रैटिक श्रमिक पार्टी के अंदर-भीतर लेनिन के नेतृत्व वाले बोल्शेविक गुट को बल मिला और वर्ष 1917 में लगा कि राजशाही को ध्वस्त किया जा सकता है और अब सत्ता हथियाने का समय आ गया है तथा अक्टूबर 1917 में रूस की सत्ता बोल्शेविक के हाथों आ गयी यानी मार्क्स के सपनों का साम्यवाद व कम्युनिज़्म आ गयी, जो कि समाजवाद का ग्रामीण रूप था । रूस में लेनिन के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति की सफलता और रूसी सत्ता में कब्जा के साथ ही संसार दो विचारधारावाले राजनैतिक गुटबंदी में बंट गयी – पूँजीवादी और समाजवादी विचारधारा ! दोनों अपनी श्रेष्ठता साबित करने में लग गए ! पूँजीपति और मजदूरों के बीच की विभेदकारी रेखा और भी लंबी हो गयी । फिर मार्क्सवाद को रोकने की कोशिश होने लगी।

कार्ल मार्क्स के बहाने भारत के वर्त्तमान को अगर परखे, तो देश में कहीं भी अगर बंधुआ मजदूरी कराई जाती है तो यह प्रत्यक्षत: बंधुआ मजदूरी प्रणाली उन्मूलन अधिनियम 1976 का उल्लंघन होगा। श्रमशक्ति दिवस पर भारत सरकार ने श्रमिकों की कद्र की है और उन्हें सम्मानपूर्वक ट्रेन से घर भेजा है। केंद्र और राज्य सरकार ने मजदूरों व श्रमिकों की घर वापसी कराकर महत्वपूर्ण कार्य कराए हैं, किन्तु उन्हें सीधे घर न भेजकर क्वारंटाइन होम में रखने चाहिए । बिहार, यूपी में गृह जिला आकर कई श्रमिक और विद्यार्थी सीधे घर घुस रहे हैं।

फ्रेडरिक एंजेल्स उनके अभिन्न मित्रो में थे । ‘दास कैपिटल’ में उनकी महती भूमिका रही है । वर्ष 1867 में प्रकाशित ‘दास कैपिटल’ ने इतनी उथल-पुथल मचाई कि संसारभर में कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद पूरी तरह से छा गए । उसके दार्शनिक और अर्थशास्त्रियों को हिलाकर रख दिया ! मार्क्स दुनिया को बदलना चाहते थे । सिर्फ वे ही नहीं, प्रायः लोग दुनिया को बदलना चाहते थे, पर वो जो खुद को या तो पूर्ण समझते थे, वे बदल नहीं पाते या बदलना नहीं चाहते थे ! ‘दास कैपिटल’ में कार्ल मार्क्स ने सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ‘पूंजीवाद’ वह अर्थव्यवस्था है, जो मालिक बनने की इच्छा, लाभ कमाने की लालसा और उद्योगपतियों द्वारा स्वयं निर्णय लेने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित है व होती है ! यह किसी खून चूसनेवाले जीवों की भाँति श्रम के शोषण से पनपती है और अंत में आत्मघाती साबित होती है।

कार्ल मार्क्स का मानना था कि शोषित और शोषक दो ही वर्ग है। सर्वहारा वर्ग और बुर्ज़ुआ समाज । पूँजीवाद नित्यप्रति और सतत बढ़ रहे संकटों का चिरजड़ित प्रतिमा है, किन्तु एक दिन श्रमिक वर्ग और उनके संगठन इसे ढहा देंगे ! जर्मनी में मई 1818 को मार्क्स पैदा हुए थे और सिगमंड फ्रायड 6 मई को, मार्क्स के जन्म के 38 वर्ष बाद, बावजूद फ्रायड वह दूसरा चिंतक है, जिसने आने वाली सदियों के चिंतन पर सबसे गहरा असर डाला। फ्रायड ने बताया कि बाहर की जो दुनिया है, उसका हमारे अवचेतन से बहुत गहरा वास्ता है। इस दुनिया की गुत्थी को ठीक से समझने के लिए ज़रूरी है कि हम अपने अंदर प्रवेश करें। ध्यातव्य है, जन्मभूमि जर्मनी में मार्क्स की कोई कद्र नहीं है । चीन और रूस जैसे देशों में सत्ता एक व्यक्ति में ही केंद्रित हो जाने से मार्क्स अब अप्रासंगिक ही हो गए हैं, ऐसा बिल्कुल ही लगने लगा है!

डॉ. सदानंद पॉल

एम.ए. (त्रय), नेट उत्तीर्ण (यूजीसी), जे.आर.एफ. (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), विद्यावाचस्पति (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर), अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी के प्रशंसित पत्र प्राप्तकर्त्ता. गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकॉर्ड्स इत्यादि में वर्ल्ड/नेशनल 300+ रिकॉर्ड्स दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 12,000+ रचनाएँ और संपादक के नाम पत्र प्रकाशित. गणित पहेली- सदानंदकु सुडोकु, अटकू, KP10, अभाज्य संख्याओं के सटीक सूत्र इत्यादि के अन्वेषक, भारत के सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अर्हताधारक, पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.