कविता

ज़िंदगी

कुछ यूँ ज़िंदगी सता रही है
खुद आगे बढ़ रही है
मुझे ठोकरों और मुसीबतों में उलझा रही है,
गुरूर है उसको,
क़ाबिल नहीं है कोई जो उसके साथ चल सके,
हर मोड़ पे उसको मात दे सके,
जिसको कुछ बनने की चाहत हो ,
कुछ पाने का हौसला हो,
डरता नहीं है वो इंसान इन मुसीबतों और ठोकरों से,
ऐ ज़िंदगी,
तू कितनी मुसीबतों से सामना करवाएगी,
जितना नीचे गिरायेगी,
हर बार उतने ही होंसले से हम उठेंगे और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे,
ऐ ज़िंदगी,
आज बुरा है मेरा वक़्त,
तो कल अच्छा भी होगा,
तेरी मुसीबतें और ठोकरें ही मेरे आगे बढ़ने का हौसला होगा,
मुझे तुझसे नहीं खुद से जीतना है,
अपनी लगन,मेहनत और ईमानदारी से बस आगे बढ़ते रहना है,
हारना मैंने सीखा नहीं
और रुकना में  चाहती नहीं,
भागती रहूँगी,
दौड़ती रहूँगी
ठोकरों के बाद भी धीरे-धीरे ही सही मगर चलती रहूँगी,
चलती रहूँगी उस वक़्त तक
जब तक पहुँच ना जाऊँ अपनी कामयाबी  की  सीढ़ी पे।।
— निहारिका चौधरी

निहारिका चौधरी

खटीमा (उत्तराखंड)