कविता

मन की माया

मन की माया तन से निर्मल
जैसे जल बहता हो अविरल
सौंदर्य परित करता कल कल
करता सिंचित धरिणी का तन।

जब केश आवरण बन जाये,
तब मेघ देख शर्माते हैं
बनकर श्यामल नभ में घटाएं,
पृथ्वी पर जल बरसाते हैं
मन छम छम कर जैसे पायल।
जैसे जल बहता हो अविरल।।

जब शर्माकर मुस्काये वो
रति काम संग शर्माएं यो,
चहुँ ओर खिले पुष्पित पल्लव
महकी महकी सी दिशाएं हों,
अभितः मौसम तब हो चंचल।
जैसे जल बहता हो निर्मल।।

जब नयन निराले नृत्य करें,
अधरों से प्रेम सुधा बरसे
है निम्न नाभि कटि मृगिणी सी,
अवलोक जिन्हें मानुज तरसें
प्रेमातुर निरखि नयन श्यामल।
जैसे जल बहता हो अविरल।।

— रघुनाथ द्विवेदी

रघुनाथ द्विवेदी

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