लघुकथा

अपना-अपना महत्त्व

 एक दिन सुई, धागा और कैंची में झगड़ा हो गया की अपन में श्रेष्ठ कौन हैं? तीनों को लड़ते देख कर मास्टर हतप्रभ होकर के देखता ही रहा! सुई बोली-” मेरे बिना धागा क्या कर सकता है?” धागा बोला-“मेरे बिना कपड़ों की सिलाई कैसे हो सकती है?” कैंची भी कहने लगी- “मैं कपड़ों को निश्चित आकार में नहीं काटूँ तो तुम्हारी क्या वखत?” सब अपनी-अपनी इंपोर्टेंस की शेखी बघार रहे थे। तभी मास्टर ने कहा -“मेरे पास कला नहीं हो तो तुम्हारा क्या इंपोर्टेंस?” अब मास्टर की कला भी खीलखिला रही थी तब व्यवहार ने कहा-“मैं नहीं हूंँ तो तुम्हारी कारीगरी को कौन पूछेगा?” अब  व्यवहार इठलाने लगा। व्यवहार समझने लगा मेरे बिना कुछ नहीं चल सकता। तो प्रेम-मोहब्बत ने आकर कहा- “व्यवहार तो मतलब से भी किया जा सकता है।” इसलिए मैं श्रेष्ठ हूंँ, मैं सबको जोड़ें और बांँधे रखता हूंँ।” अब प्रेम- मोहब्बत अपने आप में कुफ्फा होने लगे। तब विश्वास ने आकर कहा- “अगर तुम्हें मैं जोड़कर नहीं रखूँ तो तुम सब बिखर जाओगे।” अब धीरे-धीरे सब को समझ में आ गया कि हम सब एक के बिना अधूरे हैं। सबका अपना-अपना महत्त्व हैं। हम तो सिर्फ कठपुतली हैं। जिसकी जो ज़रूरत पड़ती है उसके अनुसार काम करने लगते हैं। नहीं तो एक के बिना अधूरापन सब को खलता हैं।
— डॉ. कांति लाल यादव

डॉ. कांति लाल यादव

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