कविता

दरिंदगी

दरिंदगी
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मैं भूखी प्यासी बेबस लाचार
इंसानों से थी मदद की दरकार
पेट में पल रहा था एक नव अंकुर मेरे
मन में उमंगें मचल रही थीं बहुतेरे
भूख प्यास से व्याकुल आ गई थी मैं
इंसानों की बस्ती में
सवार हो गई थी मैं विश्वास
अविश्वास की कश्ती में
इंसानों से डरना चाहिए ये जानती थी मैं
पर इंसान भी भगवान का रूप है यह मानती थी मैं
कुछ देर भटकन के बाद कुछ इंसान मिले
मुझे लगा जैसे भगवान मिले
बड़े प्यार से मुझको दुलारा पुचकारा
फिर खाने को भी दिया
जिसमें मिला दिया था अंगारा
भूखी बावली मैं फल के धोखे में
वह अंगारा खा गई
इंसान के भेष में दरिंदे को पहचानने में
धोखा खा गई
तहस नहस कर दिया था
उस अंगारे ने मेरे मुख मंडल को
गर्म लहू ने सींच दिया था उस छोटे से भूमण्डल को
क्रोध की ज्वाला धधकी थी मेरे भी मन में
सबक सिखाऊँ इन दरिंदों को एक ही क्षण में
एक पल को सोचा , अगर मैं भी वहशी बन गई
उस वहशी और मुझमें फिर फर्क क्या रहेगा ?
तहस नहस कर देती गर इंसानों की उस बस्ती को
जानती थी हर इंसान मुझको जानवर ही कहेगा
मैं जानवर होकर भी जानवर ना बन सकी ,
क्या कोई मुझको इतना बतलायेगा ?
जानवर तो पैदायशी जानवर ही है होता
इंसान कब पैदायशी इंसान कहलायेगा ?
पर लगता नहीं इंसान हमें कभी समझ पायेगा
पर क्या भगवन तू मुझे इतना समझायेगा ?
सुना था तू सबकी रक्षा करता है ,
पर मेरी मदद को तू क्यों नहीं आया ?
सतयुग में गजराज की हांक पर
क्यों था दौड़े चला आया ?
परमात्मा में आत्मा न हो तो भगवान कैसा ?
इंसानियत न हो जिसमें वो इंसान कैसा ?
समझ नहीं आया कभी कभी
तू भी भक्तों में भेद क्यों करता है ?
हे भगवन बता ! क्या तू भी इंसानों से डरता है ?
हे भगवन बता ! क्या तू भी इंसानों से डरता है ?

 

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।