कविता

प्रतिस्पर्धा

जमाने में किस को
किस की परवाह है
सब अपने ही गम में
मसरूफ़ हैं
गम अपना देखें
कि गैरों का
कोई अपना सा नजर
आता नहीं
आए भी तो आए कैसे
द्वेष भरा आपस में
ईच्छा से है अभिभूत
कहने को कहते सभी
नहीं  है यह झूठ
पर यह सबसे बड़ा
सच है आज
नहीं पचा पा रहा कोई
इक दूजे को
बस एक ही सवाल है
अंतर्मन में
यह मुझसे ज्यादा
खुशहाल क्यों है
झांको जरा खुद के भीतर
अपने सवाल का उत्तर
तुम पायोगे
उदासी का एक
आलम
इस तरह
छा गया है
कि मन
मुड़
अब खुद
में समा गया है
*ब्रजेश*

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020