कविता

तेरी यादों की गठरी

कितने इम्तहान दिये मैंने,
कितनी तकलीफें सही मैंने,
मगर तेरे दिल के किसी कौने में, में नहीं।
बरसों इन्तजार किया मैंने,
ताज़ा जहर पिया मैंने
मगर तेरे आस-पास भी में नहीं।
साँसें बचा के रखी थी मैंने,
धडकनों को लगाम दे रखी थी मैंने,
मगर तेरी धडकनों में मैं कहीं नहीं।
दुनियां से बेपरवाह थी में,
तेरे प्रेम की डोर से बंधी थी में,
मगर तेरे जज्बात में,मैं कहीं नहीं।
मुद्तों तेरे इन्तजार की राह तकी मैंने,
तेरे इश्क में,हर जख्म सहे मैंने,
मगर इन जख्मी जज्बातों की मंजिल कहीं नहीं।
हर रात हर दिन तेरी,याद में गुजारे मैंने,
तेरी यादों की गठरी को संभाले रखा मैंने,
मगर कैसे खोलों इन्हें, बिखर जायेंगी ये,
इन्हें तेरी चौखट पर उतारने की जगह कहीं नहीं।
कितने इम्तहान दिये मैंने, कितनी तकलीफें सही मैंने,
मगर तेरे दिल के किसी कौने में में नहीं।
तेरी तकलीफ़ का ख्याल था मुझे,
इसलिए शिकायत नहीं की मैंने,
तेरे जज्बात की फिक्र थी मुझे,
इसलिए खुद की परवाह नहीं की मैंने,
तेरे हर अहसास की महक है मेरी साँसों में,
मगर तेरी साँसों में,मैं कहीं नहीं।
तुम्हारे हर ख्याल का ख्याल है !मुझे,
तुम्हारे दद॔ के अहसास को सम्भाले रखा है मैंने,
जमाने से क्यों डरते हो, प्रेम तुम से किया है मैंने,
मगर इस प्रेम को कोई कैसे समझेगा,
इतनी सिद्त से प्रेम किसी ने किया ही नहीं।
तुम से मिलने की हसरतें ,बहुत थी मेरी,
सारी जंजीर तोड़ दी मैंने,
खुद को रोक न सकी,
मगर पता नहीं था कि जंजीरों से निकलकर भी कोई राह नहीं,
प्रेम तो किया है मैंने,
मगर इस प्रेम के लिए जगह कहीं नहीं।
इक शाम ये गजल भी पढ़ लेना,
हृदय से निकले अल्फाजों को वयां किया है मैंने,
इक ख्वाब सजाया था, इन जल मगन आँखों में मैंने,
मगर तुम्हारे पास कहाँ वक्त होगा
इस गजल के लिए,
ये तो इक बन्द किताब है,
किसी ने इसके पन्ने खोले ही नहीं।
हर पल तुम्हारी राह तकी है मैंने,
थक गयी हैं ये आँखे अब, बहुत इन्तजार किया है मैंने,
कहीं अलविदा न कह दे ये हृदय, बहुत जख्म सहे हैं मैंने,
मगर तुम अपना ख्याल रखना,अब में थक गयी हूँ!
इस हृदय की पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं।
तुम्हारी यादों की गठरी को संभाले रखा है मैंने,
तुम्हारे हर अन्दाज़ को जिया है मैंने,
मगर इन्हें खोलने का वक्त तुम्हारे पास कहीं नहीं।

सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ

स्नातकोत्तर (हिन्दी)