कविता

ढलती शाम

प्रकृति के नियम
बड़े अटूट होते हैं,
हर सुबह की शाम होती है,
घनघोर अंधेरा भी
प्रकाश आने से
नहीं रोक पाता है।
ऐसे ही जीवन की सुबह को
शाम में ढलना ही पड़ता है,
प्रकृति के नियमों में
बंधना ही पड़ता है।
जीवन की शाम हमें
बहुत कुछ बताती है/सिखाती है,
दो वक्त की रोटी की
मोहताज भी बनाती है।
जीवन की दिनचर्या में
हम सब कुछ भूले रहते हैं,
प्रकृति के नियमों को
नजरअंदाज करते हैं।
जीवन भर गधों की तरह
काम करते, धन संग्रह करते
कुछ समझते नहीं हैं,
जीवन की शाम में
अपने हाथ कुछ नहीं है।
अपने हाथ में
जो कल तक अपना था
आज उसकी बागडोर
बच्चों के हाथ आ गई है।
अब तो जीवन की शाम
शून्यकाल में ही बिताना है,
अपने आराध्य की आराधना में
बचे हुए जीवन को बिताना है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921