चांद का सफर
उस दिन चांद को था देखा मैंने,
कर रहा था वो भी किसी का इंतजार
देखा था उसे मैंने इधर उधर भटकते,
होके बेकरार…
कभी जाता था वो नदी के तीरे,
कभी जाता था छत पे,बादलों में छिपके
कभी पेड़ो के पीछे से,झांकता झरोखों से …,धीरे से..
बेकरारी बढ़ती जाती थी,और चांद घटता जाता था,
घटता ही रहता था…
और फिर मायूस होके अंधेरे में सो रहता था;;;
पर एक उम्मीद का साया….,उससे जाके कहता था
बाहर निकलो, अपने दिल में पूरी रोशनी भरकर
आ जाएगी वो खुद ही सामने, तुम्हारी चांदनी बनकर
प्रेम अगर सच्चा है,असर दिखाएगा जरूर…
थोड़ा सबर कर ,
चल अब फिर से सफर कर..
मिलन का वक्त आयेगा जरूर….!!!!
✍️निरूपा कुमारी