कविता

जुगाड़

हमारी पहचान ही जुगाड़ है
जुगाड़ ही हमारी जान है,
काश!जुगाड़ का नोबेल होता
तो हमारा ही हरदम
उस पर कब्जा होता।
अब बेचारा साहित्यकार भी
जुगाड़ करता है,
बिना कुछ लिखे ही
छपने के जुगाड़ में रहता है।
वो भी क्या करे बेचारा
सम्मान का मोह उसे भी होता है।
अब ये उसकी मजबूरी है
साहित्यकार कहलाने के लिए
कुछ तो जुगाड़ जरूरी है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921