कविता

मेरी अभिलाषा

मैं नहीं चाहती नवरात्र में
मुझे दुर्गा बना पूजा जाए ।
मैं नहीं चाहती पैदा होने पर
मुझे लक्ष्मी सा जाना जाए
मै नहीं चाहती सरलता में
मुझे सीता मांँ समझा जाए ।।

मैं नहीं चाहती पग पग पर
मुझे पुरुष के साथ तुला जाए
मैं नहीं चाहती सामाजिक बेड़ियों से
मेरे सपनो को कुचला जाए
मैं नहीं चाहती पुरुष अहं का खेल
मेरी अस्मत से खेला जाए ।।

मैं नहीं चाहती सदैव मुझे
मर्यादा ज्ञान दिया जाए
मैं नहीं चाहती मुझे जीने का हक
समाज की शर्तो पे दिया जाए
मैं नहीं चाहती रिश्तों को निभाते
मेरा खुद का अस्तित्व बिखर जाए

बेटी बहन प्रेमिका पत्नी बहू मांः…
हर एक रिश्ते से पहले
मैं एक औरत हूंँ, और………
मुझे औरत ही रहने दिया जाए ।।

— सारिका “जागृति” 

डॉ. सारिका ठाकुर "जागृति"

ग्वालियर (म.प्र)